Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 429
________________ 127 चरित्रग्रहणमीमांसा ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः योग्याः सर्वज्ञदीक्षणे / कुलहीने न दीक्षास्ति जिनेन्द्रोदिष्टशासने // 906 // न्यक्कुलानामचेलैकदीचादायी दिगम्बरः / जिनाज्ञाकोपतोऽनन्तसंसारः समुदाहृतः / / 107 // दीक्षां नीचकुलं जानन् गौरवाच्छिष्यमोहतः। यो ददात्यथ गृह्णाति धर्मोद्दाहो द्वयोरपि.॥१०८॥ अजानाने न दोषोस्ति ज्ञाते सति विवर्जयेत् / आचार्योऽपि स मोक्तव्यः साधुवगैरतोऽन्यथा // 10 // कुलीनक्षुल्लकेष्वेव सदा देयं महाव्रतम् / सल्लेखनोपरूढेषु गणेन्द्रेण गुणेच्छुना // 13 // कारिणो द्विविधाः सिद्धा भोज्याभोज्यप्रभेदतः / भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा कुलकवतम् // 154 // सर्वज्ञपदके योग्य दीक्षामें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण ही योग्य माने गये हैं। जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा उपदिष्ट शासनमें कुलहीनको दीक्षा नहीं है // 106 // जो दिगम्बर नीच कुलवालेको दिगम्बरपदकी दीक्षा देता है वह जिनाज्ञाका लोप करनेवाला होनेसे अनन्त संसारका पात्र होता है // 107 // जो गुरुतावश शिष्योंके मोहसे यह नीचकुली है ऐसा जानकर भी उसे दीक्षा देता है या लेता है उन दोनोंके धर्मका लोप हो जाता है ||108 // ... किन्तु अज्ञात अवस्थामें नीचकुलीको दीक्षा देनेमें दोष नहीं है / परन्तु ज्ञात होनेपर उसका निवारण कर देना चाहिए / अन्यथा साधुसमुदायका कर्तव्य है कि वह ऐसे प्राचार्यका त्याग कर दे // 10 // - गुणोंके इच्छुक आचार्य सल्लेखनामें लगे हुए कुलीन क्षुल्लकोंको ही महाव्रत स्वीकार करावे // 113 //

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