Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 431
________________ आहारग्रहणमीमांसा आहारग्रहणमीमांसा उत्तम-मज्झिमगेहे दारिद्दे ईसरे णिरावेक्खा / सम्वत्थ गिहिदपिंडा पध्वजा एरिसा भणिया // 48 // उत्तम, मध्यम या जघन्य घरमें तथा दरिद्र या समर्थ व्यक्तिके यहाँ सर्वत्र जिसमें श्राहार स्वीकार किया जाता है, जिनदीक्षा इस प्रकारकी होती है // 48 // -बोधप्राभूत जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त आजीवं / तेहिं पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसो // 31 // जाति, कुल, शिल्पकर्म, तपःकर्म और ऐश्वर्य ये आजीव हैं। इनसे अपने लिए 'आहारको प्राप्त करना आजीव नामका दोष है // 31 // सूदी सुंडी रोगी मदय णQसय पिसाय जग्गो य / उच्चारपडिदवंतरुहिरवेसी समणी अंगमक्खीया // 46 // अतिबाला अतिवुड्डा घासंती गब्भिणी य अंधलिया। अंतरिदा व णिसण्णा उच्चत्था अह व णीचत्था // 50 // पूयण पजलणं वा सारण पच्छादणं च विज्मवणं / कच्चा तहाग्गिकजं णिव्बादं घट्टणं चावि // 51 // लेवणमजणकम्मं पियमाणं दारयं च णिक्खमियं / एवंविहादिया पुण दाणं जदि दिति दायगा दोसा // 52 // जिसने वालकको जन्म दिया है, जो मद्यपान करनेमें आसक्त रहता है, जो रोगी है, जो मृतकको श्मशानमें छोड़कर आया है, जो नपुंसक है, जो पिशाचरोगसे पीड़ित है, जो नग्न है, जो लघुशङ्का आदि करके आया है, जो मूर्छित है, जो वमन करके आया है, जिसे रक्त लगा

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