Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 440
________________ 438 वर्ण, जाति और धर्म जातिवर्णकुलोनेषु भुक्तेऽजानन् प्रमादतः।। सोपस्थानं चतुर्थ स्यान्मासोऽनाभोगतो मुहुः // 13 // ' जो जाति, वर्ण और कुलसे हीन पुरुषके घर जानकारीके विना भोजन करता है उसे प्रतिक्रमणपूर्वक उपवास करना चाहिए। तथा जो बार-बार भोजन करता है उसे अनाभोगके साथ एक माहका प्रायश्चित्त कहा है // 3 // जातिवर्णकुलोनेषु भुञ्जानोऽपि मुहुर्मुहुः / साभोगेन मुनिनूनं मूलभूमि समश्नुते // 14 // किन्तु जो साधु जाति, वर्ण और कुलसे हीन पुरुषके यहाँ बार-बार भोजन करता है वह आभोगपूर्वक मूलस्थानको प्राप्त होता है // 64 // चण्डालसंकरे स्पृष्टे पृष्टे देहेऽपि मासिकम् / तदेव द्विगुणं भुक्ते सोपस्थानं निगद्यते // 10 // चाण्डालके साथ मिश्रण होने पर या उसका स्पर्श होने पर पञ्चकल्याण नामक प्रायश्रित्त करना चाहिए / तथा उसका भोजन करने पर प्रतिक्रमण सहित उससे दूना प्रायश्चित्त करना चाहिए // 101 // -प्रायचित्तचूलिका किरातचर्मकारादिकपालानां च मन्दिरे। समाचरति यो भुक्तिं तत्प्रायश्चित्तमीदृशम् // 6 // .. जो किरात, चमार आदि और कापालिकके घरमें भोजन करता है उसे आगे कहे अनुसार प्रायश्चित्त करना चाहिए // 6 // इहाष्टादशजातीनां यो भुक्तिं सदने पुनः / समाचरति चैतस्य प्रायश्चित्तमिदं भवेत् // 7 // जो अठारह जातियोंके घर भोजन करता है उसे इस प्रकार प्रायश्चित्त करना चाहिए // 7 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460