Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 448
________________ वर्ण, जाति और धर्म सामायिकं स्तवः प्राज्ञैर्वन्दना सप्रतिक्रिया। प्रत्याख्यानं तनसर्गः षोढावश्यकीरितम् // 8-26 // प्राज्ञ पुरुषोंने सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक कर्म कहे हैं // 8-26 / / उत्कृष्टश्रावकेणेते विधातव्याः प्रयत्नतः / भन्यैरेते यथाशक्ति संसारान्तं यियासुभिः // 8-71 // यहाँ पर इनके करनेकी विधि बतलाई है उसके अनुसार उत्कृष्ट श्रावकोंको ये प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए तथा संसारका अन्त चाहनेवाले अन्य गृहस्थोंको ये यथाशक्ति करने चाहिए // 8-71 // / दानं पूजा जिनैः शीलमुपवासश्चतुर्विधः। __ श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः // 6-1 // दान, पूजा, शील और उपवास यह संसाररूपी वनको भस्म करनेवाला चार प्रकारका श्रावकधर्म जिनदेवने कहा है // 6-1 जिनस्तवं जिनस्नानं जिनपूजां जिनोत्सवम् / कुर्वाणो भक्तितो लचमी लभते याचितां जनः // 12-40 // जिनस्तुति, जिनस्नान, जिनपूजा और जिनोत्सवको भक्तिपूर्वक करनेवाला मनुष्य वांछित लक्ष्मीको प्राप्त करता है / / 12-40 // -अमितिगतिश्रावकाचार मद्यमांसमधुत्यागाः सहोदुम्बरपञ्चकाः / अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुतेः // श्रुति के अनुसार पाँच उदुम्बर फलों के साथ मद्य, मांस और मधुका त्याग करना गृहस्थों के ये आठ मूलगुण कहे गये हैं। --यशस्तिलकचम्पू भाश्वास 7 पृ० 327 देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। .. दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने /

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