Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 456
________________ 454 वर्ण, जाति और धर्म भी यहाँ जान लेना चाहिए, क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शनके बिना उत्पन्न होनेवाला प्रथम सम्यक्त्व असम्भव है। . -जीवस्थानसम्यक्त्वोत्पत्तिचूलिका सूत्र 30 धवला नित्याष्टान्हिकसञ्चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमैन्द्रध्वजाविज्याः पात्रसमक्रियान्वयदयादत्तीस्तपःसंयमान् / स्वाध्यायं च विधातुमास्तकृषीसेवावणिज्यादिकः / शुद्धयाप्तोदितया गृही मललवं पक्षादिभिश्च क्षिपेत् // 1-18 // . किं विशिष्टः सन् आहतकृषीसेवावणिज्यादिकः आहतानि यथास्वं प्रवतितानि कृषीसेवावणिज्या आदिशब्दान्मषोविद्याशिल्पानि च षडाजीवनकर्माणि येन सः आइतकृषीसेवावणिज्यादिकः // 1-18 टीका // . नित्यमह, आष्टाह्निकमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुमपूजा और इन्द्रध्वजपूजा इन पाँच प्रकारकी पूजाओंको तथा पात्रदत्ति, समदत्ति, अन्वयदत्ति और दयादत्ति इन चार प्रकारकी दत्तियोंको तथा तप, संयम और स्वाध्यायको करने के लिए जिसने कृषि, सेवा और व्यापार आदि कर्म स्वीकार किए हैं ऐसा गृहस्थ आप्तके द्वारा कही गई शुद्धिके द्वारा तथा पक्षादिरूप चर्याके द्वारा अपने पापलेशका नाश करता है // 1-18 // ___ यहाँ श्लोकमें कृषि, सेवा और वाणिज्यके बाद आये हुए आदि पद द्वारा मषि, विद्या और शिल्प ये कर्म लिए गये हैं। तात्पर्य यह है कि छहों कर्मोंसे आजीविका करनेवाला गृहस्थ उक्त पूजाओं, दत्तियों, स्वाध्याय और संयमका अधिकारी है। -सागारधर्मामृत पूजकः पूजकाचार्य इति द्वधा स पूजकः / आयो नित्याचकोऽन्यस्तु प्रतिष्ठादिविधायकः // 16 // ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शुद्धो वाद्यः सुशीलवान् / दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशौचसमन्वितः // 17 // *

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