Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 457
________________ जिनदर्शन-पूजाधिकारमोमांसा 455 कुलेन जात्या संशुद्धो मित्रबन्ध्वादिभिः शुचिः / गुरूपदिष्टमन्त्रात्यः प्राणिबाधादिदूरगः // 18 // द्वितीयस्योच्यतेऽस्माभिर्लक्षणं सर्वसम्पदः / लक्षितं त्रिजगन्नाथवचोमुकुरमण्डले // 16 // कुलीनो लक्षणोद्भासी जिनागमविशारदः / सम्यग्दर्शनसम्पन्नो देशसंयमभूषितः // 20 // पूजक और पूजकाचार्य इस प्रकार पूजक दो प्रकारके होते हैं। उनमेंसे जो प्रतिदिन पूजा करनेवाला है वह आद्य अर्थात् पूजक कहलाता है। और जो प्रतिष्ठा आदि कराता है वह अन्य अर्थात् पूजकाचार्य कहलाता / है जो अपने ब्रतोंमें दृढ़ है, आचारका दृढ़तासे पालन करता है, सत्य और शौच युक्त है, जिसकी कुल और जाति शुद्ध है, मित्र और बन्धु आदि परिकर भी जिसका उत्तम है, जो गुरुके द्वारा दिये गये मन्त्रसे युक्त है और जो प्राणिवधसे विरत. है ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनमेंसे कोई भी वर्णवाला शील पुरुष पूजक होता है / अब पूजकाचार्यका लक्षण कहते हैं जो कुलीन है, अच्छे लक्षगोंवाला है, जिनागममें विशारद है, सम्यग्दर्शनसे युक्त है और देशसंयमसे भूषित है इत्यादि गुणवाला पूजकाचार्य होता है ऐसा केवली भगवानने अपनी दिव्यध्वनिमें कहा है। जिस दिव्यध्वनिमें दर्पणके समान सब प्रतिभाषित होता है // 16-20 // -पूजासार जातिकुलविशुद्धो हि देहसंस्कारसंयुतः। पूजासंस्कारभावेन पूजायोग्यो भवेन्नरः // जाति और कुलसे जो विशुद्धियुक्त है तथा जिसके देहका संस्कार हुआ है वह मनुष्य ही पूजासंस्कारभावसे पूजाके योग्य होता है। -स्मृतिसार

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