Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 438
________________ 136 वर्ण, जाति और धर्म गायकस्य तलारस्य नीचकर्मोपजीविनः / मालिकस्य विलिङ्गस्य वेश्यायास्तैलिकस्य च // 1 // नीच कर्मसे आजीविका करनेवाले गायक, कोतवाल, माली, भरट, वेश्या और तेलीके घर जाकर साधु आहार नहीं लेते // 1 // (नीतिसार श्लो० 36) अस्यायमर्थः-गायकस्य गन्धर्वस्य गृहे न भुज्यते / तलारस्य कोटपालस्य नीचकर्मोपजीविनः चर्मजलशकटादेहिकादेः विलङ्गस्य भरटस्य वेश्याया गणिकायाः तैलिकस्य धाञ्चिकस्य / .. दीनस्य सूतिकायाश्च छिम्पकस्य विशेषतः / मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिगश्च न // 2 // तथा दीन, बालकको जननेवाली, दर्जी, मदिराका विक्रय करनेवाले और मद्यपायीके घर जाकर भी साधु भिक्षा नहीं लेते // 2 // . (नीतिसार श्लो० 38) दीनस्य श्रावकोऽपि सन् यो दीनं भाषते / सूतिकाया या बालकानां जननं कारयति / अन्यत्सुगमम् / इस श्लोकमें दीन शब्द आया है। उसका यह तात्पर्य है कि जो श्रावक होकर भी दीन वचन बोलता है उसके यहाँ भी साधु भिक्षा नहीं लेते। शालिको मालिकश्चैव कुम्भकारस्तिलंतुदः / नापितश्चेति विज्ञेया पञ्च ते पञ्च कारवः // 3 // रजकस्तक्षकश्चैव अयःसुवर्णकारकः / दृषत्कारादयश्चेति कारवो बहवः स्मृताः // 4 // क्रियते भोजनं गेहे यतिना मोक्तुमिच्छुना / एवमादिकमप्यन्यच्चिन्तनीयं स्वचेतसा // 5 // * . (नीतिसार श्लो० 10)

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