Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 442
________________ वर्ण, जाति और धर्म तत्र बाह्य परित्यज्य वाहनादिपरिच्छदम् / विशिष्टकाकुदैर्युक्ता मानपीठं परीत्य ते // 57-171 // प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानस्तम्भमनादितः / उत्तमाः प्रविशन्त्यन्तरुत्तमाहितभक्तयः // 57-172 // पापीला विकुर्माणाः शूद्राः पाखण्डपाण्डवाः / विकलाङ्गेन्द्रियोद्धान्ता परियन्ति. बहिस्ततः // 57-173 // समवसरणके प्राप्त होने पर वाहन आदि सामग्रीको वहीं बाहर ही छोड़कर तथा विशिष्ठ चिह्नोंसे युक्त होकर वे सब उत्तम पुरुष मानपीठको धेर कर तथा अनादिसे आये हुए मानस्तम्भको प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दना करके उत्तम भक्तियुक्त होकर भीतर प्रवेश करते हैं। और जो पापशील विकारयुक्त शूद्रतुल्य पाखण्डमें पटु हैं वे तथा विकलाङ्ग, विकलेन्द्रिय और भ्रमिष्ठ जीव बाहर ही घूमते रहते हैं // 57-171-173 // -हरिवंशपुराण देवोऽहंन्प्राङ्मुखो नियतिमनुसरन्नुत्तराशामुखो वा। यामध्यास्ते स्म पुण्यां समवसृतमही तां परीत्याध्यवात्सुः / प्रादक्षिण्येन धीन्द्रा ग्रुयुवतिगणिनीनृस्त्रियस्त्रिश्च देव्यो देवाः सेन्द्राश्च माः पशव इति गणा द्वादशामी क्रमेण // 23-193 // अरिहन्त देव नियमानुसार पूर्व अथवा उत्तरदिशाकी ओर मुख कर जिस समवसरणभूमिमें विराजमान होते हैं उसके चारों ओर प्रदक्षिणा क्रमसे 1 बुद्धिके ईश्वर गणधर अादि मुनिजन, 2 कल्पवासिनी देवियाँ, 3 आर्यिकाएँ व मनुष्य स्त्रियाँ, 4 भवनवासिनी देवियाँ, 5 व्यन्तरोंकी देवियों, 6 ज्योतिषियोंकी देवियाँ, 7 भवनवासी देव, 8 व्यन्तर देव, 6 ज्योतिष्कदेव, 10 कल्पवासी देव, 11 मनुष्य और 12 पशु इन बारह गणों के बैठने योग्य बारह सभाएँ होती हैं // 23-163 // . .

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