Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 436
________________ 434 वर्ण, जाति और धर्म में छोड़ कर आये हुए पुरुषके द्वारा इसी प्रकार नपुंसकके द्वारा साधुको आहार दिये जाने पर दायक दोष होता है // 5-34 // सूती शौण्डी तथा रोगी शवः षण्ढः पिशाचवान् / पतितोच्चारनग्नाश्च रक्ता वेश्या च लिङ्गिनी // वान्ताऽभ्यक्ताङ्गिका चातिबाला वृद्धा च गर्भिणी / अदन्त्यन्धा णिसण्णा च नीचोच्चस्था च सान्तरा // फूत्कारं ज्वालनं चैव सारणं छादनं तथा। विध्यापनाग्निकार्ये च कृत्त्वा निश्च्यावघट्टने // लेपनं मार्जनं त्यक्त्वा स्तनलग्नं शिशुं तथा। दीयमानेऽपि दानेऽस्ति दोषो दायकगोचरः // (उद्धत) (ये श्लोल मूलाचारकी गाथाओंका अनुसरण करते हैं, जिनका अर्थ पूर्वमें दे आये हैं।) मूत्राख्यो मूत्रशुक्रादेश्चाण्डालादिनिकेतने / प्रवेशो भ्रमतो भिक्षोरभोज्यगृहवेशनम् // 5-53 // आहारके समय साधुको पेशाव और वीर्यका आ जाना मूत्र नामका अन्तराय है / तथा आहारके लिए चारिका करते समय साधुका चण्डाल आदिके घरमें प्रवेश करना अभोज्यगृहप्रवेश नामका अन्तराय है // 5-53 // .."चाण्डालादिनिकेतने चाण्डालश्वपचवस्टादीनामस्पृश्यानां गृहे / यहाँ 'चाण्डालादिनिकेतन' पदसे चाण्डाल, श्वपच और वरुट आदि अपृश्योंके घरका ग्रहण किया है / तात्पर्य यह है कि आहारके समय चारिका करते हुए यदि साधु अपृश्य शूद्रोंके घर में प्रवेश करता है तो अभोज्यगृहप्रवेश नामका अन्तराय होता है। तद्वच्चण्डालादिस्पर्शः कलहः प्रियप्रधानमृती / - भीतिर्लोकजुगुप्सा सधर्मसंन्यासपतनं च // 5-56 //

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