Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ आहारग्रहणमीमांसा .परिहारो दुविहो-अणवटुओ पारंचिओ चेदि / तत्थ अणवठ्ठओ जहण्णेण छम्मासकालो उक्कस्सेण बारसवासपेरतो / कायभूमीदो परदो चेव कयविहारो पडिवंदणविरहिदो गुरुवदिरत्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो खवणायंबिलपुरिमड्डयट्ठाणणिब्धियदीहि सोसियरसरुहिरमांसो होदि / जो सो पारंचिओ सो एवंविहो चेव होदि / किंतु साधम्मियवजियखेत्ते समाचरेयब्वो। एत्थ उक्कस्सेण छम्मासखवणं वि उवइह / एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि गरिंदविरुद्धाचरिदे आइरियाणं णव-दसपुव्वहराणं होदि। ___ परिहार दो प्रकारका है-अनवस्थाप्य और पारञ्चिक / उनमेंसे अनवस्थाप्य परिहारप्रायश्चित्तका जघन्य काल छह महीना और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है / वह कायभूमिसे दूर रहकर ही विहार करता है, प्रतिवन्दनासे रहित होता है, गुरुके सिवा अन्य सब साधुओंके साथ मौनका नियम रखता है तथा उपवास, आचाम्ल, दिनके पूर्वार्धमें एकासन और निर्विकृति आदि तपों द्वारा शरीरके रस, रुधिर और मांसको शोषित करनेवाला होता है। पारंचिक तप भी इसी प्रकारका होता है। किन्तु इसे साधर्मी पुरुषोंसे रहित क्षेत्रमें आचरण करना चाहिए / इसमें उत्कृष्ट रूपसे छह मासके उपवासका भी उपदेश दिया गया है। ये दोनों ही प्रकारके प्रायश्चित्त राजाके विरुद्ध आचरण करने पर नौ और दस पूर्वोको धारण करनेवाले श्राचार्य करते हैं। -धवला कर्मअनुयोगद्वार पृ० 62 .........तथा पर्यटतोऽभोजनगृहप्रवेशो यदि भवेत् चाण्डालादिगृहप्रवेशो यदि स्यात् ... // 7 // __तथा चारिका करते हुए साधुका अभोजन घरमें प्रवेश हो जावे अर्थात् चाण्डाल श्रादिके घर में प्रवेश हो जावे तो साधु अन्तराय मानकर आहारका त्याग कर देते हैं !!76 // -मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार टीका

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