Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 427
________________ चरित्रग्रहणमीमांसा 425 जो शूद्र उपस्कर अर्थात् आसन आदि उपकरण, आचार अर्थात् मद्य आदिका त्याग और वपु अर्थात् शरीर इन तीनोंकी पवित्रतासे युक्त है वह जिनधर्मके सुनने अर्थात् ग्रहण करनेका अधिकारी है, क्योंकि जो आत्मा जाति अर्थात् वर्णसे हीन अर्थात् रहित है या जघन्य वर्णका है वह भी धर्मभाक् अर्थात् श्रावकधर्मका आराधक होता है। उत्कृष्ट और मध्यम वर्णका मनुष्य तो जिनधर्मके ग्रहण करनेका अधिकारी होता ही है यह मूल श्लोकोंमें आये हुए 'अपि' शब्दका अर्थ है। आर्ष में वर्णका लक्षण इस प्रकार कहा है_ जिन जीवोंमें जाति और गोत्र आदि कर्मः शुक्लध्यानके कारण होते हैं वे तीन वर्णवाले हैं और इनके सिवा शेष सब शूद्र कहे गये हैं। स्फुरद्बोधो गलवृत्तमोहो विषयनिःस्पृहः / हिंसादेविरतः कात्स्टनांद्यतिः स्याच्छ्रावकोऽशतः // 4-21 // जिसे सम्यग्ज्ञान हो गया है, जिसका चारित्रमोहनीयकर्म गल गया है और जो पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे निस्पृह है वह यदि हिंसादि पापोंसे पूरी तरह विरत होता है तो यति होता है और एकदेश विरत होता है तो श्रावक होता है // 4-21 // -सागरधर्मामृत विप्रक्षत्रियविटशूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः / जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोणमाः // 7-142 // क्रियाभेदसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये भेद कहे गये हैं। जैनधर्ममें अत्यन्त आसक्त हुए वे सब भाई-भाईके समान हैं.॥७-१४२॥ -त्रैवर्णिकाचार अइबालवुड्डदासेरगब्भिणीसंढकारुगादीणं / / पव्वजा दितस्स हु छग्गुरुमासा हवदि छेदो // 21 // विति परे एदेसु व कारुगणिग्गंथदिक्खणे गुरुणो। गुरुमासो दायब्वो तस्स य णिग्घाडणं तह य // 220 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460