Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 426
________________ 424 वर्ण, जाति और धर्म .. अब आहार आदिकी शुद्धिको करनेवाला शुद्ध भी ब्राह्मणांदिके समान . यथायोग्य धर्मक्रिया करनेका अधिकारी है इस बातका समर्थन करते हुए आगेका श्लोक कहते हैं... दीक्षा व्रताविष्करणं व्रतोन्मुखस्य वृत्तिरिति यावत् / सा चात्रोपासकदीक्षा जिनमुद्रा वा उपनीत्यादिसंस्कारो वा / / 2-20 // व्रतोंको प्रकट करना दीक्षा कहलाती है। व्रतोंके सम्मुख हुए जीवकी जो वृत्ति होती है उसे दीक्षा कहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है / वह यहाँपर उपासकदीक्षा, जिनमुद्रा या उपनीत्यादिसंस्कार यह तीनों प्रकारकी दीक्षा ली गई है // 2-20 // शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुःशुद्धयास्तु तादृशः / जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक्॥२-२२॥ उपस्कर, प्राचार और शरीरको शुद्धिसे युक्त शूद्र भी ब्राह्मणादिके समान जिनधर्मके सुननेका अधिकारी है, क्योंकि जातिसे हीन आत्मा भी कालादिलब्धिके प्राप्त होनेपर धर्मसेवन करनेवाला होता है // 2-22 // अस्तु भवतु / कोऽसौ शूद्रोऽपि / किंविशिष्टस्तादृशो जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः। किंविशिष्टः सन् उपस्करः आसनाद्युपकरणं आचारः मद्यादिविरतिः वपुः शरीरं तेषां त्रयाणां शुद्धया पवित्रतया विशिष्टः / कुत इत्याह जात्येत्यादि / हि यस्मादस्ति भवति / कोऽसौ आत्मा जीवः। किंविशिष्टो धर्ममाक् श्रावकधर्माराधकः। कस्यां सत्यां कालादिलब्धौ कालादीनां कालदेशादीनां लब्धौ धर्माराधनयोग्यतायां सत्याम् / किंविशिष्टोऽपि हीनो रिक्तोऽल्पो वा किं पुनरुत्कृष्टो मध्यमो वेत्यपिशब्दार्थः / कया जाया वर्णसम्भूत्या वर्णलक्षणमार्षे यथा जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः / येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः //

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