Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 424
________________ 122 वर्ण, जाति और धर्म ... वर्णेन जातिविशेषेणार्हद्रूपस्य नैर्ग्रन्थस्यायोग्यानां द्वन्दु एकवद् भवति / तक्षायस्कारं कुलालवस्टं रजकतन्तुवायम् / वर्णेनेति किम् ? मूकवधिरौ अहंदूपायोग्यानामिति किम् ! ब्राह्मणक्षत्रियौ / / 4 / 17 / . वर्णसे अर्थात् जातिविशेषसे जो अहंद्रप अर्थात् निर्ग्रन्थपदके अयोग्य हैं उनका द्वन्द्वसमास करनेपर एकवद्भाव होता है यथा-तक्षायस्कारं कुलालवरुटं रजकतन्तुवायम् / सूत्रमें 'वर्णेन' पद क्यों दिया है ? 'मूकवधिरौं' इसमें एकवद्भाव न हो इसके लिए दिया है / 'अहंद्र पायोग्यानाम्' पद क्यों दिया है ? 'ब्राह्मणक्षत्रियौ' इसमें एकवद्भाव न हो इसके लिए दिया है। -शब्दार्णवचन्द्रिका वृत्ति येषां भुक्तं पात्रं संस्कारेण शुद्धयति ते पात्रमर्हन्ति इति / पञ्याः तच्छूद्रावयवः। तचायस्कारं कुलालवरूढम् / पाठ्यग्रहणं किम् ? चण्डालमृतपाः। जिनके भोजनका पात्र संस्कारसे शुद्ध हो जाता है वे पात्र हो सकते हैं / यहाँपर पत्र्य शब्दसे ऐसे प्रत्येक शूद्रका ग्रहण किया है / तक्षायस्कारं कुलालवरुटम् / सूत्रमें 'पाच्य' पद क्यों दिया है ? 'चण्डालमृतपाः' इसमें एकवद्भाव न हो इसके लिए दिया है / -चिन्तामणि लघुवृत्ति ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुर :सरः। सूरिदेव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः / उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् / नैकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः // संसारसमुद्रसे तारनेवाले और चातुर्वर्ण्यसम्पन्न प्राचार्यकी ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्डमें देवके समान आराधना करनी चाहिए। .

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