Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 418
________________ 416 वर्ण, जाति और धर्म गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य / भैच्याशनस्तपस्यन्नुस्कृष्टश्चेलखण्डधरः // 147 // जो श्रावक घरसे मुनिवन में जाकर और गुरुके निकट व्रतोंको ग्रहण कर तपस्या करता हुआ भिक्षावृत्तिसे भोजन करता है और खण्डवस्त्र रखता है वह उत्कृष्ट श्रावक होता है // 147 // -रत्नकरण्डश्रावकाचार वर्णेनाहद पायोग्यानाम् // 1,4,86 // जो वर्णसे अहंद्रूप अर्थात निर्ग्रन्थ लिङ्गके अयोग्य हैं उनका द्वन्द्व समासमें एकवद्भाव होता है // 14 // 86 // -जैनेन्द्रव्याकरण पात्र्याशूद्रानपुंसकाध्वर्युक्रत्वधीत्यासनविलिङ्गनदीपूर्देशगवाश्वादि // 2 / 1 / 104 // पात्र्यशूद्र, अनपुंसक अध्वर्युकृतु, अधीत्यासन्न, पिलिङ्ग नदी,विलिङ्ग पुर, विलिङ्ग देश और गवाश्वादि वाची शब्दोंका द्वन्द्व समासमें एकवद्भाव होता है // 2 / 1 / 104 // -शाकटायनव्याकरण ___ तं चारित्त दुविहं—देसचारित्तं सयलचारित्तं चेदि / तत्थ देसचारित्तं पडिवजमाणा मिच्छाइट्ठिणो दुविहा होंति-वेदगसम्मत्तेण सहिदसंजमासंजमाभिमुहा उवसमसम्मत्तण सहिदसंजमासंजमाभिमुहा चेदि / संजमं पडिवज्जंता वि एवं चेव दुविहा होति / वह चारित्र दो प्रकारका है-देशचारित्र और सकलचारित्र। उनमेंसे देशचारित्रको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव दो प्रकारके होते हैं-प्रथम वे जो वेदक सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमके अभिमुख होते हैं और दूसरे वे जो उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमके अभिमुख होते हैं। संयमको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि भी इसी तरह दो प्रकारके होते हैं। -जीवस्थान चूलिका धवला पृ० 268

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