Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 416
________________ वर्ण, जाति और धर्म पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण / भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं // 66 // भाव रहित पढ़नेसे अथवा भाव रहित सुननेसे क्या कार्य सिद्ध होता है ? वास्तवमें भाव ही गृहस्थपने और मुनिपनेका कारण है // 66 // दम्वेण सयलणग्गा णारय-तिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता // 6 // द्रव्यसे नारकी और तिर्यञ्च यह सब सकल संघात नग्न रहता है। परन्तु परिणामोंसे अशुद्ध होनेके कारण वे भाव श्रमणपनेको नहीं प्राप्त होते // 67 // जग्गो पावइ दुक्खं जग्गो संसारसायरे भमइ / जग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणावजिओ सुइरं // 8 // जिन भावनासे रहित नग्न दुख पाता है, संसार सागरमें परिभ्रमण करता है और चिरकाल तक रत्नत्रयको नहीं प्राप्त करता // 68 // अयसाण भावणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण / पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण // 66 // ___ जो अपयशोंका पात्र है, पापसे मलिन है तथा पैशुन्य, हास्य, मात्सर्य और मायाबहुल है ऐसे नम श्रमणसे तुझे क्या मतलब // 66 // पयडहि जिणवरलिंग अभितरभावदोसपरिसुद्धो। __ भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ // 7 // तूं अन्तरङ्गके भावगत दोषसे शुद्ध होकर जिनवरके लिङ्गको प्रकट कर, क्योंकि बाह्य परिग्रहके सद्भावमें यह जीव भावमलसे स्वयंको मलिन कर लेता है // 70 // धम्मे णिप्पवासो दोसावासो य उंछुफुल्लसमो। णिप्फलणिग्गुणयारो णउलवणो णग्गरूवेण // 7 // जो धर्मसे दूर है, दोषोंका घर है तथा ईखके फूलके समान निष्फल और निर्गुण है वह नग्नरूपसे नटश्रमण है // 71 //

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