Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ चरित्रग्रहणमीमांसा 413 उससे भिन्न दूसरा श्रावकोंका उत्कृष्ट लिङ्ग कहा गया है / वह समिति पूर्वक मौनसे पात्र सहित भिक्षाके लिए भ्रमण करता है // 21 // लिंगं इत्थीण हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि / अज्जिय वि एयवस्था वत्थावरणेण भुजेइ // 22 // तीसरा लिङ्ग प्रार्या स्त्रियोंका है / वह एक समय भोजन करती है, एक वस्त्र रखती है और वस्त्र सहित ही भोजन करती है // 22 // ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तिस्थयरो। णग्णो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सब्वे // 23 // जिन शासनमें कहा है कि वस्त्रधारी यदि तीर्थङ्कर भी है तो वह सिद्ध नहीं होता / एक नग्न लिङ्ग ही मोक्षमार्ग है, शेष सब उन्मार्ग हैं // 23 // जइ दसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता। घोरं चरियं चरित्तं इत्थीसु ण पावया भणिया // 25 // - स्त्री यदि सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है तो वह भी मोक्षमार्गसे युक्त कही गई है। वह घोर चारित्रका आचरण करती है / परन्तु स्त्रियोंमें दीक्षा नहीं कही गई है // 25 // -सूत्रप्राभूत भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण / तम्हा कुणिज भावं किं कीरइ दवलिंगेण // 48 // कोई भी मुनि भावसे लिङ्गी होता है, द्रव्यमात्रसे जिनलिङ्गी नहीं होता, इसलिये तूं भाव कर, द्रव्यलिङ्गसे क्या करना है // 48 // भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण / कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण // 54 // मुनि भावसे नग्न होता है, नग्नरूप बाह्य लिङ्गसे क्या प्रयोजन, क्योंकि मुनि भावसहित द्रव्यलिङ्गके द्वारा ही कर्म प्रकृतियों के समूहका नाश करता है // 54 //

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