Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 403
________________ विवाहमीमांसा 401 सद्वेद्यचारित्रमोहोदयाद्विवहनं विवाहः। 1 / सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयाद् विवहनं कन्यावरणं विवाह इत्याख्यायते / परस्य विवाहः परविवाहः, परविवाहस्य करणं परविवाहकरणम् / ___ अयनशीलेवरी। 2 / ज्ञानावरणक्षयोपशमापादितकलागुणज्ञतया चारित्रमोहस्त्रीवेदोदयप्रकर्षादाङ्गोपाङ्गनामावष्टम्भाच्च परपुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला इत्वरी / ततः कुत्सायां कः इत्वरिका। सातावेदनीय और चारित्रमोहनीयके उदयसे विशेषरूपसे वहन करना विवाह है // 1 // सातावेदनीय और चारित्रमोहनीयके उदयसे विवहन अर्थात् कन्याका वरण करना विवाह कहा जाता है / परका विवाह परविवाह है तथा परविवाहका करना परविवाहकरण है / जो गमनशील है वह इत्वरी है // 2 // ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे प्राप्त हुई कलागुणशताके कारण तथा चारित्रमोहनीयसम्बन्धी स्त्रीवेदके उदयकी प्रकर्षता और आङ्गोपाङ्ग नामकर्मके आलम्बनसे जिसका स्वभाव पर पुरुषके पास जानेका है वह इत्वरी है। यहाँ कुत्सा अर्थमें क प्रत्यय करके इत्वरिका शब्द बना है। (शेष कथन सर्वार्थसिद्धि के समान है / ) -त० सू० अ० 7 सू० 28 तत्त्वार्थराजवार्तिक स्वयंवरगता कन्या वृणीते रुचिरं वरं / कुलीनमकुलीनं वा न क्रमोऽस्ति स्वयंवरे // 53 // अक्षान्तिस्तत्र नो युक्ता पितुर्धातुर्निजस्य वा। स्वयंवरगतिज्ञस्य परस्येह च कस्यचित् // 54 // कश्चिन्महाकुलीनोऽपि दुर्भगः शुभगोऽपरः / ... कुलसौभाग्ययोर्नेह प्रतिबन्धोऽस्ति कश्चन // 55 // स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या अपने लिए प्रिय लगनेवाले वरका वरण करती है। वहाँ यह कुलीन है या अकुलीन है ऐसा कोई नियम नहीं है // 53 // इसलिए स्वयंवरविधिके जानकार चाहे निजी माता-पिता हों या अन्य कोई उन्हें स्वयंवरमें क्रोध करना उचित नहीं है // 54 // कोई महाकुलीन 26

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