________________ वर्ण, जाति और धर्म मानकर केवल तीन वर्णके मनुष्यको माना है। साथ ही वहाँपर तीन वर्ण. . के मनुष्य के लिए इन्द्रियसंयम और तपका उपदेश भी दिया गया है। वहाँ स्पष्ट कहा है कि जो द्विज संयमका पालन नहीं करता उसके वेदाध्ययन, दान, यज्ञ, नियम और तप सिद्धिको नहीं प्राप्त होते / इस प्रकार मनुस्मृतिमें जिन छह कर्मोंका उपदेश दृष्टिगोचर होता है। वे छह कर्म ही महापुराणमें स्वीकार किये गये हैं। इसलिए मालूम पड़ता है कि महापुराणकारने उसी व्यवस्थाको स्वीकार कर यह विधान किया है कि कुलधर्म रूपसे इज्या आदि षटकर्मका अधिकारी मात्र तीन वर्णका मनुष्य है, शूद्र नहीं / इस प्रकार महापुराणमें जहाँ मनुस्मृतिका अनुसरण किया गया है वहाँ हमें यह भी देखना है कि महापुराणकी यह व्यवस्था क्या सचमुच में आगम परम्पराका अनुसरण करती है या महापुराणमें इस प्रकारके विधान होनेका कोई अन्य कारण है ? प्रश्न महत्त्वका होनेसे इसपर साङ्गोपाङ्ग विचार करना आवश्यक है। . पहले हम यह स्पष्ट रूपसे बतला आये हैं कि जो भी कर्मभूमिज मनुष्य सम्यक्त्वको स्वीकार करता है वह सम्यक्त्वके साथ या कालान्तरमें देशविरत और सकलविरत रूप धर्मको धारण करनेका अधिकारी है। वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होनेसे अमुक प्रकारके देशविरत और सकलविरत धर्मको धारण करता है और शूद्र होनेसे अमुक प्रकारके धर्मको धारण करता है ऐसा वहाँ कोई भेद नहीं किया गया है। देशविरत और सकलविरतका सम्बन्ध अन्तरङ्ग परिणामोंके साथ होनेके कारण वर्ण या जातिके आधारपर उनमें भेद होना सम्भव भी नहीं है। सच बात तो यह है कि आगम साहित्यमें वर्ण नामको कोई वस्तु है इस तथ्यको ही स्वीकार नही किया गया है। इसलिए यह तो स्पष्ट है कि महापुराणमें गृहस्थोंके आवश्यक कर्तव्य कर्मों के विषयमें जो कुछ भी कहा गया है उसका समर्थन 1. मनुस्मृति 2, 88-67 /