________________ 288 वर्ण, जाति और धर्म का तपस्वी था। उसका सोमयशा नामकी एक स्त्रीसे सम्पर्क हो गया। उन्हींसे इसकी उत्पत्ति हुई है / एक बार जब वे उस बालकको वृक्षके नीचे सुला कर तुधाको शान्त करनेके लिए नगरमें गये तब जृम्भक नाम का एक देव पूर्व भवके स्नेह वश उसे हरण कर विजयार्ध पर्वत पर ले जा कर उसका पालन करने लगा / कालान्तर में उसके आठ वर्षका होने पर देवने उसे आकाशगामिनी विद्या और जैनधर्मकी शिक्षा देकर छोड़ दिया / अनन्तर उसने संयमासंयमको अङ्गीकार कर पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए जीवनके अन्तमें मुनिव्रत अङ्गीकार कर निर्वाण पद प्राप्त किया / ' पूतिगन्धिका धीवरीकी श्रावकदीक्षा और तीर्थवन्दना इस भरतक्षेत्रके मगधदेशमें सोमदेव ब्राह्मणको अत्यन्त रूपवती लक्ष्मीमती नामकी भार्या थी। उसे अपने रूपका बड़ा अभिमान था। एक बार शृंगारादि करते समय जब वह दर्पणमें अपना मुख देख रही थी तब उसने भिक्षाके लिए आये हुए अत्यन्त कृश शरीर समाधिगुप्त मुनिको देख कर उनकी ग्लांनिभावसे निन्दा की / फल स्वरूप वह मर कर अनेक योनियोंमें भटकती हुई अन्तमें पूतिगन्धिका नामकी धोवर कन्या हुई / किन्तु पुराकृत पाप कर्मके उदय वश माताने उसे छोड़ दिया, इसलिए पितामहीने उसका पालन कर बड़ा किया। कालान्तरमें उसकी उन्हीं समाधिगुप्त मुनिसे पुनः भेट हो गई। मुनिने अवधिज्ञानसे सब कुछ जान कर उसे सम्बोधित किया / फल स्वरूप उसने अपने पूर्व भव जान कर श्रावकधर्मको अङ्गीकार किया। इस प्रकार श्रावकधर्मको तुल्लिकाके व्रतको अङ्गीकार कर वह आर्यिकाओं के साथ राजगृह आई और वहाँ श्राचाम्ल वर्धन व्रतको करके सिद्धशिलाकी वन्दनाके लिए गई / तथा सिद्धशिलाकी वन्दना कर और नीलगुफामें सल्लेखना पूर्वक मरण कर वह अच्युत स्वर्गके 1 हरिवंशपुराण सर्ग 42 श्लोक 12-21 तथा सर्ग 65 श्लो०२४ /