Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 394
________________ 362 वर्ण, जाति और धर्म सदाचारैर्निजैरिष्टैः अनुजीविभिरन्विताः। . .. अद्यास्मदुत्सवे यूयं आयातेति पृथक्-पृथक् / / 38-10 // और सबके पास खबर भेज दी कि आप सब अलग-अलग अपने अपने सदाचारी इष्ट अनजीवी जनोंके साथ आज हमारे उत्सवमें सम्मिलित हों // 38-10 // हरितैरकुरैः पुष्पैः फलैश्चाकीर्णमङ्गणम् / सम्राडचीकरत्तेषां परीक्षायै स्ववेश्मनि // 38-11 // इधर चक्रवर्तीने उन सबकी परीक्षा करनेके लिए अपने महलके प्राङ्गणको हरे अंकुर पुष्प और फलोंसे व्याप्त,कर दिया // 38-11 // तेष्वव्रता विना सङ्गात् प्राविक्षन् नृपमन्दिरम् / ताननेकतः समुत्सायं शेषानाह्वयत् प्रभुः // 38-12 // उनमें जो अव्रती थे वे विना किसी प्रतिबन्धके राजमन्दिर में घुस आये। राजा भरतने उन्हें एक ओर , करके शेष लोगोंको भीतर बुलाया // 38-12 // . ते तु स्वव्रतसिद्धयर्थ ईहमाना महान्वयाः / नेषुः प्रवेशनं तावद् यावदार्दाकुराः पथि // 38-13 // परन्तु ऊँची परम्पराको माननेवाले और अपने-अपने व्रतोंकी सफलता को चाहनेवाले उन लोगोंने जब तक मार्गमें अंकुर हैं तब तक राजमन्दिर में प्रवेश करनेकी इच्छा नहीं की // 38-13 // सधान्यहरितैः कीर्णमनाक्रम्य नृपाङ्गणम् / निश्चक्रमुः कृपालुत्वात् केचित् सावद्यभीरवः // 3-14 // पापसे डरनेवाले कितने ही लोग दयालु होनेके कारण हरे धान्योंसे व्याप्त राजप्राङ्गणको उल्लंघन किये विना बाहर चले गये // 38-14 // कृतानुबन्धना भूयश्चक्रिणः किल तेऽन्तिकम् / प्रासुकेन पथान्येन भेजुः क्रान्स्वा नृपाङ्गणम् // 38-15 //

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