________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा वर्णोत्तमत्वं यद्यस्य न स्यान स्यात्प्रकृष्टता। अप्रकृष्टश्च नात्मानं शोधयेन परानपि // 4-183 / / सब वर्गों में श्रेष्ठ होना ही इसकी वर्णोत्तम क्रिया है। इससे यह प्रशंसाको प्राप्त होता हुआ स्व और पर दोनोंका उपकार करनेमें समर्थ होता है // 40-182 // यदि इसके वर्णोत्तम क्रिया नहीं है तो यह अन्यसे उत्कृष्ट नहीं हो सकता और जो उत्कृष्ट नहीं है वह न तो अपनेको शुद्ध कर सकता है और न दूसरेको ही शुद्ध कर सकता है // 40-183 // स्थादवध्याधिकारेऽपि स्थिरास्मा द्विजसत्तमः / ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षामान्यतो वधमर्हति // 40-164 // सर्व प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मणस्तु विशेषतः / गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां वधेऽपि द्वयात्मता मता // 40-165 // तस्मादवध्यतामेष पोषयेत् धार्मिके जने / धर्मस्य तद्धि माहात्म्यं तत्स्थो यन्नाभिभूयते // 40-196 // तदभावे च वध्यत्वमयमृच्छति सर्वतः। एवं च सति धर्मस्य नश्येत् प्रामाण्यमहताम् // 4.-197 // ततः सर्वप्रयत्नेन रच्यो धर्मः सनातनः / स हि संरक्षितो रक्षां करोति सचराचरे // 40-198 // अपने आत्मा स्थिर हुआ उत्तम द्विज अवध्य पदका अधिकारी है, क्योंकि उसमें गुणोंका उत्कर्ष होनेके कारण ब्राह्मण वधके योग्य नहीं होता // 40-164 // सब प्राणियोंको नहीं मारना चाहिए और विशेष कर ब्राह्मणोंको नही मारना चाहिए इस प्रकार गुणोंके उत्कर्ष और अपकर्षके कारण वध भी दो प्रकारका माना गया है // 40-165 // इसलिए धार्मिक मनुष्योंमें यह अपनी अवध्यताको पुष्ट करे / वह धर्मका ही माहात्म्य है जो इस धर्ममें स्थित रहकर किसीसे तिरस्कृत नहीं होता // 40-196 // यदि वह अपनी अवध्यताको पुष्ट नहीं करेगा तो सब तरहसे यह वध्य हो जायगा