Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 398
________________ 366 वर्ण, जाति और धर्म और ऐसा होने पर अरिहन्तदेवके धर्मकी प्रमाणता नष्ट हो जायगी // 40-167 // इसलिए सब प्रकार के प्रयत्न करके सनातन धर्मकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि उसकी अच्छी तरहसे रक्षा करने पर वह चराचर को रक्षा कर सकता है // 40-168 // स्याददण्ड्यत्वमप्येवमस्य धर्मे स्थिरामनः / धर्मस्थो हि जनोऽन्यस्य दण्डप्रस्थापने प्रभुः / / 40-166 / / तद्धर्मस्थीयमाम्नायं भावयन् धर्मदर्शिभिः / अधर्मस्थेषु दण्डस्य प्रणेता धार्मिको नृपः // 40-200 / / परिहार्य यथा देवगुरुद्व्यं हितार्थभिः / ब्रह्मत्वं च तथाभूतं न दण्डाहस्ततो द्विजः // 40-201 // युक्त्यानया गुणाधिक्यमारमन्यारोपयन् वशी। अदण्ड्यपक्षे स्वात्मानं स्थापयेद्दण्डधारिणाम् // 40-202 // इसी प्रकार धर्ममें स्थिर हुआ यह द्विज अंदण्ड्य पदका भी अधिकारी है, क्योंकि धर्ममें स्थित हुआ मनुष्य ही दूसरेको दण्ड देनेमें समर्थ होता है // 40-66 // नियम यह है किं धर्म तत्त्वको जाननेवाले पुरुषोंने जो धार्मिक परम्परा स्थापित की है उसका विचार करता हुआ ही धार्मिक राजा अधार्मिक पुरुषोंको दण्ड देता है 40-200 // जिस प्रकार अपना हित चाइनेवाले पुरुषोंके द्वारा देव द्रव्य और गुरुद्रव्य त्यागने योग्य है उसी प्रकार ब्राह्मणका द्रव्य भी त्यागने योग्य है, इसलिए द्विज दण्ड देने योग्य नहीं है // 40-201 // इस युक्तिसे अपनेमें अधिक गुणोंका आरोप करता हुआ वह जितेन्द्रिय दण्ड देनेवाले राजा आदिके समक्ष अपने श्रापको दण्ड न देने योग्य स्थापित करता है // 40-202 // . मया सृष्टा द्विजन्मानः श्रावकाचारचुचवः / त्वद्गीतोपासकाध्यायसूत्रमार्गानुगामिनः // 41-30 //

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