Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 392
________________ वर्ण, जाति और धर्म से यह कहकर कि हे पुत्र ! इन्हें मत मार उसे इस कर्मसे निवृत्त किया। इसीसे वे उस समयसे 'माहन' कहे जाने लगे // 122! - . -पनचरित पर्व 4 चतुर्दशमहारत्नै निधिभिनवभिर्युतः। निःसपत्नं ततश्चन्त्री बुभोज वसुधां कृती // 11-03 // अदाद् द्वादशवर्षाणि दानं चासौ यथेप्सितम् / लोकाय कृपया युक्तः परीक्षापरिवर्जितम् // 11-104 // जिनशासनवात्सल्यभक्तिभारवशीकृतः / परीचय श्रावकान् पश्चादू यवव्रीह्यङकुरादिभिः // 11-105 // काकिण्या लक्षणं कृत्वा सुरत्नत्रयसूत्रकम् / संपूज्य स ददौ तेभ्यो भक्तिदानं कृते युगे // 11-106 // ततस्ते ब्राह्मणाः प्रोक्ता वतिनो भरतादृताः / वर्णत्रयेण पूर्वेण जाता वर्णचतुष्टयी // 11-107 // चौदह रत्न और नौ निधियोंसे युक्त भरत चक्रवर्ती राज्यादि कार्योंमें सफलता प्राप्त कर शत्रु रहित पृथिवीका भोग करने लगा // 11-103 / / उस समय उसने सब कृपासे प्रेरित होकर परीक्षा किये बिना लोगोंको बारह वर्ष तक यथेच्छ दान दिया // 11-104 // इसके बाद जिनशासनमें प्रगाढ वात्सल्य और भक्तिवश कृतयुगमें उसने यत्र और धान्य आदिके अंकुरों द्वारा श्रावकोंको परीक्षा करके तथा काकिनी रत्नके द्वारा उन्हें रत्नत्रयसूत्रसे चिह्नित करके आदर-सत्कार पूर्वक भक्तिदान दिया // 11-105, 106 / इस प्रकार भरत चक्रवर्तीसे आदर पाकर वे सब व्रती श्रावक ब्राह्मण कहलाये। तात्पर्य यह है कि पहलेके तीन वर्षों से उस समय चार वर्ण उत्पन्न हो गये // 11-107 // -हरिवंशपुराण

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