Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 391
________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा 386 महारम्भेषु संसक्ताः प्रतिग्रहपरायणाः / करिष्यन्ति सदा निन्दां जिनभाषितशासने // 4-116 // निर्ग्रन्थमग्रतो दृष्ट्वा क्रोधं यास्यन्ति पापिनः / उपद्रवाय लोकस्य विषवृक्षाङ्कुरा इव // 4-120 // तछू स्वा भरतः क्रुद्धः तान्सर्वान् हन्तुमुद्यतः। त्रासितास्ते ततस्तेन नाभेयं शरणं गताः // 4-121 // यस्मान्मा हननं पुत्र ! कार्षीरिति निवारितः / ऋषभेण ततो याता माहना इति ते श्रुतिम् // 4-122 // अनन्तर राजाने श्रावकोंको दानमें इच्छानुसार धन दिया। किन्तु अपना इस प्रकार आदर-सत्कार देखकर उन दुरात्माओंके मनमें यह विचार आने लगा कि राजाने बड़ी श्रद्धासे हमारा आदर-सत्कार किया है, इससे जान पड़ता है कि लोकमें बड़े पवित्र और सबका हित करनेवाले हम ही हैं // 112-113 // फलस्वरूप वे गर्वित हो समस्त भूमण्डलमें जिसे धनी देखते थे उसीसे धनकी याचना करने लगे // 114 // यह सब देखकर मतिसागरने भरत महाराजसे निवेदन किया कि मैंने आज समवसरणमें यह वाणी सुनी है कि वर्द्धमान जिनके बाद कलिकाल में आपके द्वारा बनाये गये सब पाखण्डी और अहङ्कारी हो जावेंगे // 115, 116 // मोह और कषाय संयुक्त होकर पाप क्रियामें उन्मत्त हो धर्मबुद्धिसे प्राणियोंका घात करने लगेंगे / / 117 // समस्त प्रजाको मोहित करते हुए हिंसाका व्याख्यान करनेवाले खोटे ग्रन्थ वेदको अकर्तृक बतलावेंगे // 118 / / प्रारम्भ प्रधान कार्यों में तत्पर रहेंगे, सबसे दान लेंगे, जिनशासनकी सदा निन्दा करेंगे // 116 / और निम्रन्थको अपने सामने आता हुआ देखकर क्रोध करेंगे। तात्पर्य यह है कि विषवृक्षके अंकुरके समान ये पापी भी सब जनताका अहित करनेवाले होंगे // 120 // यह सुनकर क्रोधित हो भरत महाराज उन्हें मारनेके लिए उद्यत हुए। फलस्वरूप पीड़ित हुएं वे सब भगवान् ऋषभदेवकी शरण में गये // 121 // भगवान्ने भरत महाराज

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