________________ 358 वर्ण, जाति और धर्म अन्योन्याश्रय दोष आता है। यथा--ब्राह्मण जातिकी सिद्धि होने पर उसीकी ब्रह्माके मुखसे उत्पत्ति सिद्ध होवे और ब्रह्माके मुखसे ही ब्राह्मण जातिकी उत्पत्ति सिद्ध होने पर ब्राह्मण जातिको सिद्ध होवे / इस प्रकार ये दोनों बातें अन्योन्याश्रित हैं। दूसरे ब्रह्मासे उत्पत्तिरूप विशेषणका ज्ञान ब्राह्मण जातिका साक्षात्कार होते समय किसे होता है अर्थात् किसीको नहीं होता और जब विशेषणका ज्ञान नहीं होता ऐसी अवस्थामें विशेष्यका निश्चय करानेमें वह कैसे समर्थ हो सकता है। अर्थात् नहीं हो सकता, क्योंकि विशेषणका ज्ञान हुए विना उससे विशेष्यका निश्चय माननेपर अतिप्रसङ्ग दोष आता है। नियम यह है कि विशेषणका ज्ञान हो आनेपर ही वह अपने विशेष्यका ज्ञान करा सकता है। जैसे दण्ड आदि विशेषणका ज्ञान हो जानेपर ही वह दण्डी पुरुष आदिका ज्ञान कराने में समर्थ होता है, अन्यथा नहीं। यहाँ ब्राह्मण जातिका ज्ञान करानेमें विशेषण उसको ब्रह्मासे उत्पत्ति होना है। पर ब्राह्मण ब्रह्मासे उत्पन्न हुआ है यह तो किसीको दिखलाई देता नहीं, इसलिए उससे ब्राह्मणजातिका बोध नहीं हो सकता। --न्यायकुमुदचन्द्र जातिलिङ्गमितिद्वन्द्वमङ्गमाश्रित्य वर्तते / अङ्गात्मकश्च संसारस्तस्मात्तद् द्वितयं त्येजत् // 33-86 // जाति और लिंग ये दोनों शरीरके आश्रयसे रहते हैं और संसार शरीरस्वरूप है, इसलिए इन दोनोंका त्याग कर देना चाहिए // 32-86 // --ज्ञानार्णव उच्चासु नीचासु हन्त जन्तोलब्धासु नो योनिषु वृद्धि-हानी। उच्चो न नीचोऽहमपास्तबुद्धिः स मन्यते मानपिशाचवश्यः 7-36 // उच्चोऽपि नीचं स्वमपेक्षमाणो नीचस्य दुःखं न किमेति घोरम् / नीचोऽपि पश्यति यः स्वमुच्चं स सौख्यमुच्चस्य न किं प्रयाति 7-37