Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 384
________________ 382 वर्ण, जाति और धर्म जिनकी आजीविका पराधीन है, मायावी हैं और अत्यन्त दीन हैं वे राजाओंसे बढ़कर उत्तम जातिवाले कैसे हो सकते हैं // 33 // तेषां द्विजानां मुखनिर्गतानि वचास्यमोघान्यधनाशकानि / इहापि कामान्स्वमनःप्रक्लप्तान् लभन्त इत्येव मृषावचस्तत् // 34 // * उन द्विजोंके मुखसे निकले हुए वचन अमोघ और पापका नाश करनेवाले हैं। उनकी सेवा करनेसे इस लोकमें ही अपने मनोवाञ्छित फलकी प्राप्ति होती है इत्यादि जो कुछ कहा जाता है वह सब असत्य है // 34 // रसस्तु गौडो विषमिश्रितश्च द्विजोक्तिमात्रात्प्रकृति स गच्छेत् / सर्वत्र तद्वाक्यमुपैति वृद्धिमतोऽन्यथा श्राद्धजनप्रवादः // 35 // विषमिश्रित गुड़का रस द्विजके श्राशीर्वाद देने मात्रसे अपने प्राकृतिक रूपको प्राप्त कर लेता है इस प्रकार उनमें श्रद्धा रखनेवाले मनुष्य उनके वचनोंको सर्वत्र अन्यथा रूपसे प्रचारित करते रहते हैं / / 35 / / इह प्रकुर्वन्ति नरेश्वराणां दिने दिने स्वस्त्ययनक्रियाश्च / शान्ति प्रघोषयन्ति धनाशयैव शान्तिक्षयं तेऽप्यनवाप्यकामाः // 36 // वे ब्राह्मण प्रतिदिन राजाओंकी क्षेमके लिए स्वतिवाचन, अयन तथा अनुष्ठान करते हैं और एकमात्र धनकी आशासे शान्तिकी घोषणा करते हैं। परन्तु वे मनोवाञ्छित फलकी प्राप्ति न होनेसे दुखी होते हैं // 36 // कर्माणि यान्यन हि वैदिकानि रिपुप्रणाशाय सुखप्रदानि / आयुर्बलारोग्यवपुःकराणि दृष्टानि वैयर्थ्यमुपागतानि // 37 // शत्रुत्रोंका नाश करनेवाले, सुख देनेवाले तथा आयु, बल और शरीरको निरोग रखनेवाले इस लोकमें जितने भो वैदिक कर्म हैं बेसन निष्फल होते हुए देखे गये हैं // 37 // सुमन्त्रपूताम्बहुताग्निसाच्या पल्यो नियन्ते च परैर्भियन्ते / कन्याश्रितव्याधिविशीर्णदेहा वैधव्यमिच्छन्त्यथवाचिरेण // 38 //

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