Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 388
________________ 386 वर्ण, जाति और धर्म अनेक प्रकारका भोजन लेकर वहाँ गये // 2 // तथा जिनेन्द्रदेवको और समस्त दिगम्बर साधुत्रोंको दोनों हाथोंसे तीन आवर्त व भक्तिपूर्वक नमस्कार कर यह वचन बोले // 63 / / हे भगवन् हमारे ऊपर कृपा कर तैयार की गई उत्तम भिक्षाको ग्रहण कीजिए // 64|| भरतके द्वारा ऐसी प्रार्थना करने पर भगवान्ने कहा हे भरत ! साधुओंके उद्देश्यसे बनाई गई भिक्षा वे ग्रहण नहीं करते // 65 // महागुणवाले वे अनेक महीनों तक उपवास करके भी तृष्णा रहित और इन्द्रियविजयी बने रहते हैं // 66 // केवल नवधा भक्तिपूर्वक प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षाको ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्राण धर्म प्राप्तिमें हेतु हैं / / 67 / मोक्षकी इच्छासे वे उस धर्मका पालन करते हैं जिसमें सुखके इच्छुक प्राणियोंको किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं होती // 18 // श्रुत्वा तद्वचनं सम्राडचिन्तयदिदं चिरम् / अहो वत महाकष्टं जैनेश्वरमिदं व्रतम् // 4-66 // तिष्ठन्ति मुनयो यत्र स्वस्मिन् देहेऽपि निःस्पृहाः / जातरूपधराः धीराः शान्तप्रशममूर्तयः // 4-100 // इदानी भोजयाम्येतान्सागारव्रतमाश्रितान् / लक्षणं हेमसूत्रेण कृत्वैतेन महान्धसा // 4-101 // प्रकाममन्यदप्येभ्यो दानं यच्छामि भक्तितः। ' कनीयान् मुनिधर्मस्य धर्मोऽमीभिः समाश्रितः // 4-102 // सम्यग्दृष्टिजनं सर्व ततोऽसौ धरणीतले। न्यमन्त्रयन्महावेगैः पुरुषः स्वस्य सम्मतैः // 4-103 // ये वचन सुनकर भरत चक्रवर्ती विचार करने लगे, अहो यह जैन दीक्षा बड़ी कठिन है // 66 // इसे पालन करनेवाले धीर, शान्त और प्रशममूर्ति दिगम्बर साधु अपने शरीर में भी निस्पृह होते हैं / / 100 // अब मैं गृहस्थ व्रतको धारण करनेवालोंको हेमसूत्रसे चिह्नित कर भोजन कराऊँगा॥१०१।।

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