Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 378
________________ वा 376 वर्ण, जाति और धर्म वतिनो ब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रियाः सतरक्षिणः। . वाणिज्यकुशला वैश्याः शूद्राः प्रेषणकारिणः // 18-66 // व्रतोंका पालन करनेवाले ब्राह्मण कहलाये, आपत्तिसे रक्षा करनेवाले क्षत्रिय कहलाये, व्यापारमें कुशल वैश्य कहलाये और सेवकका कर्म करनेवाले शूद्र कहलाये // 18-66 // -धर्मपरीक्षा द्वौ हि धमौं गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः / लोकाश्रयो भवेदाधः परः स्यादागमश्रयः // . जातयोऽनादयः सर्वास्तत्क्रियापि तथाविधा / श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः // स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् / तक्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परम् // यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतुधीस्तत्र दुर्लभा / ' संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्धे वृथागमः // सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः / यत्र सम्यक्त्वहानिनं यत्र न व्रतदूषणम् // गृहस्थोंका धर्म दो प्रकारका है-लौकिक और पारलौकिक / लौकिक धर्मका आधार लोक है और पारलौकिक धर्मका आधार आगम है। सब जातियाँ ( ब्राह्मणादि ) और उनका आचार-व्यवहार अनादि है। इसमें वेद और मनुस्मृति आदि दूसरे शास्त्रोंको प्रमाण माननेमें हमारी ( जैनोंकी ) कोई हानि नहीं है / रत्नोंके समान वर्ण अपनी अपनी जातिके आधारसे ही शुद्ध हैं। उनके आचार-व्यवहारके लिए जैन आगमकी विधि सर्वोत्तम है, क्योंकि संसार भ्रमणसे मुक्तिका कारण वर्णाश्रमधर्मको मानना उचित नहीं है और संसारका व्यवहार स्वतःसिद्ध होते हुए उसमें आगमकी दुहाई देना भी व्यर्थ है। ऐसी सब लौकिक विधि

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