________________ 356 वर्ण, जाति और धर्म पूछते हैं कि ब्राह्मणोंमें वह आचार विशेष समीचीन है यह कैसे समझा / जाय / यदि उनमें ब्राह्मणत्वकी सिद्धि होती है, इसलिए उनका श्राचार विशेष भी समीचीन सिद्ध होता है यह कहो तो ऐसा माननेसे अन्योन्याश्रय दोष आता है। यथा-प्राचारकी सत्यता सिद्ध होनेपर ब्राह्मणत्वकी सिद्ध होवे और ब्राह्मणत्वकी सिद्धि होनेपर उसके प्राचारकी सत्यता सिद्ध होवे / कदाचित् प्राचारके आलम्बनसे ब्राह्मणत्वकी सिद्धि मान भी ली जाय तो भी व्रत स्वीकार करनेके पूर्व उसके अब्राह्मण होनेका प्रसङ्ग आता है, इसलिए आचार भी ब्राह्मणजातिके प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होनेका अङ्ग नहीं माना जा सकता। एतेन संस्कारविशेषस्यापि तदङ्गता प्रत्याख्याता; भव्याप्यतिव्या. प्योरत्राप्यविशेषात् / तत्र भव्याप्तिः संस्कारविशेषात् पूर्व ब्राह्मण्यस्यापि अब्राह्मण्यप्रसक्तः स्यात् / भतिव्याप्तिः पुनः अब्राह्मण्यस्यापि तथाविधसंस्कृतस्य ब्राह्मणत्वापत्तेः स्यादिति / एतेन वेदाध्ययनस्य यज्ञोपवीतादेव तदङ्गता प्रतिव्यूढा। 5. इस पूर्वोक्त कथनसे जो लोग संस्कारविशेषको ब्राह्मण जातिका अङ्ग मानते हैं उनके उस मतका भी निराकरण हो जाता है, क्योंकि इस विचारके स्वीकार करने पर भी अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष आता है। यथा-संस्कार होनेके पूर्व ब्राह्मणको भी अब्राह्मण होनेका प्रसङ्ग आता है, इसलिए तो अव्याप्ति दोष आता है / तथा जो अब्राह्मण है उसका ब्राह्मण के समान संस्कार करनेपर उसके भी ब्राह्मण होनेका प्रसङ्ग प्राप्त होता है, इसलिए अतिव्याप्ति दोष आता है। इस कथनसे जो वेदके अध्ययन और यज्ञोपवीत आदिको ब्राह्मण जातिका अङ्ग मानते हैं उनके उस मतका भी निराकरण हो जाता है। ब्रह्मप्रभवत्वस्य च तदङ्गत्वे अतिप्रसङ्ग एव, सकलप्राणिनां तत्प्रभवतया / ब्राह्मण्यप्रसङ्गात् / किञ्च ब्रह्मणो ब्राह्मण्यमस्ति न वा? यदि नास्ति; कथमतो ब्राह्मणोत्पत्तिः। न हि अमनुष्यात् मनुष्योत्पत्तिः प्रतीता / अथ