________________ जातिमीमांसा उच्चत्व-नीचत्वविकल्प एव विकल्प्यमानः सुख-दुःखकारो / उच्चत्व-नीचत्वमयी न योनिददाति दुःखानि सुखानि जातु // 7-38 // हिनस्ति धर्म लभते न सौख्यं कुबुद्धिरुच्चत्वनिदानकारी / उपैति इष्टं सिकतानिपीडी फलं न किञ्चज्जननिन्दनीयः // 7-36 // उच्च जाति प्राप्त होने पर जीवको वृद्धि नहीं होती और नीच जाति मिलने पर हानि नहीं होती। किन्तु मानरूपी पिशाचके वशीभूत हुआ यह अज्ञानी जीव 'मैं उच्च हूँ नीच नहीं हूँ ऐसा मानता है // 7-36 // जो पुरुष उच्च है वह भी अपनेको नीच मानता हुआ क्या नीच पुरुषके घोर दुःखको नहीं प्राप्त होता है और जो नीच पुरुष है वह भी अपनेको उच्च मानता हुआ क्या उच्च पुरुषके सुखको नहीं प्राप्त होता // 7-37 // वास्तवमें यह उच्च और नीचपनेका विकल्प ही सुख और दुःखका करनेवाला है। कोई उच्च और नीच जाति है. और वह सुख और दुःख देती है यह कदाचित् भी नहीं है // 7-38 // अपने उच्चपनेका निदान करनेवाला कुबुद्धि पुरुष धर्मका नाश करता है और सुखको नहीं प्राप्त होता। जैसे बालुको पेलनेवाला लोकनिन्द्य पुरुष कष्ट भोगकर भी कुछ भी फलका भागी नहीं होता ऐसे ही प्रकृतमें जानना चाहिए // 7-36 // -अमितिगतिश्रावकाचार न जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभिः / सत्यशौचतपःशीलध्यानस्वाध्यायवर्जितैः // 18-23 // आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम् / न जातिाह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी 18-24 // ब्राह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः। एकैव मानुषी जातिराचारेण विभज्यते // 18-25 // भेदे जायेत विप्राणां क्षत्रियो न कथञ्चन / शालिजातौ मया दृष्टः कोद्रवस्य न सम्भवः // 18-26 //