________________ 362 . वर्ण, जाति और धर्म जिसमें समीचीन धर्मको प्राप्ति सम्भव है वह जाति परलोकका हेतु है; क्योंकि बीज रहित शुद्ध भूमि शस्यको उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं होती। -यशस्तिलकचम्पू आश्वास 8 पृ० 413 पुंसोऽपि क्षतसत्त्वमाकुलयति प्रायः कलङ्कः कलौ / सदृग्वृत्तवदान्यतावसुकलासौरूप्यशौर्यादिभिः / स्त्रीपुंसः प्रथितैः स्फुरत्यभिजने जातोऽसि चेदेवतः तज्जात्या च कुलेन चोपरि मृषा पश्यन्नधः स्वं क्षिपेः॥२-८८॥ हे अपनी जाति और कुलको उच्च माननेवाले ! यदि तू स्त्री-पुरुषोंमें प्रसिद्ध सम्यग्कर्शन, सम्यक्चारित्र, वदान्यता, धन, कला, सुन्दरता और शूरवीरता आदि गुणोंके साथ इस कलिकालमें दैववश अभिजात कुलमें उत्पन्न हुआ है। किन्तु निन्दा योग्य कार्यों द्वारा अन्य स्त्री-पुरुषोंको हीनबल समझकर आकुलित करता है तो तू अपने इस कल्पित जाति और कुलके अभिमानवश स्वयंको नरकमें धकेलता है // 2-88 / / -अनगारधर्मामृत जातिरूपकुलश्वर्यशीलज्ञानतपोबलः। कुर्वाणोऽहंकृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः॥ जो मनुष्य जाति, रूप, कुल, ऐश्वर्य, शील, ज्ञान, तप और बलका अहंकार करता है वह नीचगोत्रका बन्ध करता है। -अनगारधर्मामृत 2-88 टीका येऽपि वर्णानां ब्राह्मणो गुरुरतः स एव परमपदयोग्य इति वदन्ति तेऽ पि न मुक्तियोग्या इत्याह-जातिाह्मणादिदेहाश्रितेत्यादि सुगमं // 8 // तर्हि ब्राह्मणादिजातिविशिष्टो निर्वागादिदीक्षया दीक्षितो मुक्तिं प्राप्नोतीति वदन्तं प्रत्याह-जातिलिङ्गरूप विकल्पो भेदस्तेन येषां शैवादीनां समयाग्रहः आगमानुबन्धः उत्तमजातिविशिष्टं हि लिंङ्ग मुक्तिहेतुरित्यागमे प्रतिपादितमतस्तावन्मात्रणव मुक्तिरित्येवंरूपो येषामागमाभिनिवेषः तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः // 86 //