________________ 366 वर्ण, जाति और धर्म नहीं / त्रेतायुगमें अवश्य ही स्वामी सेवकभाव दिखलाई देने लगा। इन युगोंमें मनुष्योंके जो भाव थे वे द्वापर युगमें न रहे / मनुष्य निकृष्ट विचार के होने लगे, इसलिए द्वापर युगमें समस्त मानव समुदाय अवश्य ही नाना प्रकारके वर्गों में विभक्त हो गया // 6 // आगे चलकर तो कलियुगमें नाना प्रकारके अपवाद, अत्यन्त लोभ, मोह, द्वेष, वर्णोंका विपर्यास, विश्वासघात, मर्यादाका उल्लंघन और सत्यका अपलाप आदि बातें भी होंगी // 10 // शिष्ट पुरुषोंने जो चार वर्ण कहे हैं वे केवल क्रियाविशेषका ख्याल करके व्यवहारको चलानेके लिए ही कहे हैं। ब्राह्मण वर्णका मुख्य कर्म दया है, क्षत्रियवर्णका मुख्य कर्म अभिरक्षा है, वैश्यवर्णका मुख्य कर्म कृषि है और शूद्रकर्णका मुख्य कर्म शिल्प है। चार वर्ण होनेका यही कारण है / अन्य किसी भी प्रकार चार वर्ण नहीं हो सकते // 11 // -वराङ्गचरित सर्ग 25 ततः कृपासमासक्तहृदयो नाभिनन्दनः / शशास चरणप्राप्ता बद्धाञ्जलिपुटाः प्रजाः 3-254 // शिल्पानां शतमुद्दिष्टं नगराणां च कल्पनम् / प्रामादिसन्निवेशाश्च तथा वेश्मादिकारणम् // 3-255 // पतित्राणे नियुक्ता ये तेन नाथेन मानवाः / / क्षत्रिया इति ते लोके प्रसिद्धिं गुणतो गताः // 3-256 // वाणिज्यकृषिगोरक्षाप्रभृतौ ये निवेशिताः।। व्यापारे वैश्यशब्देन ते लोके परिकीर्तिताः // 3-257 // ये तु श्रुत्वा हृति प्राप्ता नीचकर्मविधायिनः / शूद्रसंज्ञामवापुस्ते भेदैः प्रेष्यादिभिस्तथा // 3-258 // . युगं तेन कृतं यस्मादित्थमेतत्सुखावहम् / तस्मात्कृतयुगं प्रोक्तं प्रजाभिः प्राप्तसम्मदम् // 3-256 //