________________ - प्रकृतमें उपयोगी पौराणिक कथाएँ 287 साक्षात् दिव्यध्वनिसे सम्बन्ध है उसके लिए वे उचित स्थान पर दो श्लोक भी न रच सकें यह क्या है ? क्या इससे यह सूचित नहीं होता कि आचार्य जिनसेनको आगमपरम्परासे आये हुए श्रावकधर्मके स्थानमें वर्णाश्रमधर्मकी स्थापना करना इष्ट था / यह दूसरी बात है कि उत्तरकालीन साहित्यकारोंने महापुराणके प्रभावमें आकर भी श्रावकाचारको सर्वथा भुलाया नहीं। इससे आठ मूलगुण पहले किस रूपमें जैनधर्ममें प्रविष्ट हुए। उसके बाद मूलगुण इस संज्ञाको धारण कर वे किस प्रकार श्रावकाचारके अङ्ग बने यह बात सहज ही समझमें आ जाती है। तात्पर्य यह है कि जैनधर्ममें वर्णाश्रमधर्मकी प्रथा महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेनने चलाई है। इसके पहले जैनधर्ममें श्रावकधर्म और मुनिधर्म प्रचलित था वर्णाश्रमधर्म नहीं / तीन वर्णके मनुष्य दीक्षाके योग्य हैं तथा वे ही इज्या अादि षटकर्मके अधिकारी हैं ये दोनों विशेषताएँ वर्णाश्रमधर्ममें ही पाई जाती हैं, श्रावकधर्म और मुनिधर्मका प्रतिपादन करनेवाले जैनधर्ममें नहीं। इसके अनुसार तो मनुष्यमात्र (लब्ध्यपर्याप्त और भोगभूमिज मनुष्य नहीं) श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षाके अधिकारी हैं / तथा वे इन धर्मोंका पालन करते हुए सामायिक श्रादि षटकोंके भी अधिकारी हैं। . प्रकृतमें उपयोगी पौराणिक कथाएँ तपस्वीकी सन्तान नौवें नारदका मुनिधर्म ___स्वीकार और मुक्तिगमन____ राजा श्रेणिकके द्वारा यह नारद कौन है ऐसी पृच्छा होने पर गौतम गणधरने उत्तर दिया कि सौरीपुरके बाहर दक्षिण दिशामें एक तपस्वियोंका आश्रम था। उसमें फल-मूल आदिसे अपनी अजीविका करनेवाले बहुतसे तपस्वी रहते थे। उनमें एक भिक्षावृत्तिसे आजीविका करनेवाला सुमित्र नाम