________________ 348 वर्ण, जाति और धर्म नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् / / आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते // 74-412 // अच्छेदो मुक्तियोग्यायाः विदेहे जातिसन्ततेः / तद्धतुर्नामगोत्रायजीवाविच्छिन्नसम्भवात् // 74-464 // शेषयोस्तु चतुर्थे स्यास्काले तज्जातिसन्ततिः // 74-435 // इस शरीरमें वर्ण तथा प्राकृति आदिकी अपेक्षा कुछ भी भेद देखनेमें नहीं आता तथा ब्राह्मणी आदिमें शूद्र आदिके द्वारा गर्भधारण किया जाना देखा जाता है // 74-461 // तथा मनुष्योंमें गाय और अश्वके समान कुछ भी जातिकृत भेद नहीं है। यदि आकृतिमें भेद होता तो जातिकुत भेद माना जाता। परन्तु इनमें प्राकृति भेद नहीं हैं, अतः उनमें जातिको कल्पना करना व्यर्थ है // 74-462 // विदेह क्षेत्रमें मुक्तिके योग्य जातिसन्ततिका विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँपर इसके योग्य नामकर्म और गोत्रकर्मसे युक्त जीवोंकी कभी व्युच्छित्ति नहीं होती // 74-464 // परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें चतुर्थ कालमें ही मुक्तियोग्य जातिसन्तति पाई जाती है // 74-465 / / -उत्तरपुराण हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु / / पुरिसु णउंसउ इथि हउँ मण्णइ मूढ विसेसु // 1 // अप्पा बंभणु बइ सुण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु / पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ भणइ असेसु // 2 // मूढ़ पुरुष ऐसा अलग अलग मानता है कि मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, में क्षत्रिय हूँ और मैं शेष अर्थात् शूद्रादि हूँ। मैं पुरुष हूँ, मैं नपुंसक हूँ और मैं स्त्री हूँ // 81 // किन्तु आत्मा न ब्राह्मण है, न वैश्य है, न क्षत्रिय है और न शेष अर्थात् शूद्र आदि ही है। वह न पुरुष है, न नपुंसक है और न स्त्री है / ज्ञानी आत्माको ऐसा मातता है // 2 // -परमात्मप्रकाश