________________ 325 गोत्र-मीमांसा 325 उच्चैनीचैश्च // 8-12 // गोत्र उच्च और नीचके भेदसे दो प्रकारका है // 8-12 // -तत्त्वार्थसूत्र सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकत्रीत्वानि / दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यतिकाः // 35 // उच्चैर्गोत्रं प्रणते गो दानादुपासनात्पूजा। भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु // 115 // सम्यग्दर्शनसे पवित्र अबती जीव भी मरकर न तो नारकी, तिर्यञ्च, नपुंसक और स्त्री होते हैं, न दुष्कुलमें जाते हैं और न विकलाङ्ग, अल्प आयुवाले और दरिद्र होते हैं // 35 // साधुओंको नमस्कार करनेसे उच्चगोत्रकी प्राप्ति होती है, दान देनेसे भोग मिलते हैं, उपासना करनेसे पूजा होती है, भक्ति करनेसे सुन्दर रूप मिलता है और स्तुति करनेसे कोर्ति फैलती है // 115 // -रत्नकरण्ड ___ गोत्रं द्विविधम् - उच्चैर्गोवं नीचर्गोत्रमिति / यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् / यदुदयाद् गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैर्गोत्रम् / गोत्र दो प्रकारका है--उच्चगोत्र और नीचगोत्र / जिसके उदयसे लोकपूजित कुलोंमें जन्म होता है वह उच्चगोत्र है और जिसके उदयसे गर्हित कुलोंमें जन्म होता है वह नीचगोत्र है। -त० सू०, अ० 8, सूत्र 12 टीका सर्वार्थसिद्धि अनार्यमाचरन् किञ्चिजायते नीचनोरः / कुछ भी अयोग्य आचरण करनेवाला व्यक्ति नीच हो जाता है। -पद्मपुराण . गूयते शब्द्यते गोत्रमुच्चै चैश्च यत्नतः // 58-218 //