________________ जातिमीमांसा 343 हरिवर्षादवतीर्णो यद्भवतां पूर्वजः पुरा तस्मात् / हरिवंश इति ख्यातो वंशो द्यावापृथिव्योः 1-28 // क्योंकि तुम्हारा पूर्वज पहले हरिवर्ष से आया था, इसलिए तुम्हारा वंश इस लोकमें हरिवंश नामसे विख्यात श्रा।।१-२८॥ -पुराणसारसंग्रह जातिमीमांसा ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः / अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः // 25 // स्मय अर्थात मानसे रहित जिनदेवने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठके आश्रयसे मान करनेको स्मय कहा है // 25 // -रत्नकरण्ड जातिदेहाश्रिता दृष्टा देह एव आत्मनो भवः / न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहाः // 8 // जाति-लिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः / तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः // 86 // जाति देहके आश्रयसे देखी गई है और आत्माका संसार शरीर ही है, इसलिए जो जातिकृत आग्रहसे युक्त हैं, वे संसारसे मुक्त नहीं . होते // 88 // ब्राह्मणादि जाति और जटाधारण आदि लिंगके विकल्परूपसे जिनका धर्ममें आग्रह है वे भी आत्माके परम पदको नहीं ही प्राप्त होते // 6 // -समाधितन्त्र न ब्राह्मणाश्रन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुण्यगौराः / न चेह वैश्या हरितालतुल्याः शूदान चाङ्गारसमानवर्णाः // 11-115 //