________________ आवश्यक षट्कर्म मीमांसा 281 कारण परिस्थिति सुलझनेके स्थानमें पुनः उलझ गई है। उदाहरणार्थसोमदेव सूरिका यह कथन कि तीन वर्ण दीक्षाके योग्य हैं, भ्रम पैदा करता है / जब वे स्वयं ही यह मानते हैं कि वर्णव्यवस्थाका पारलौकिक धर्मके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। ऐसी अवस्थामें दीक्षा अर्थात् मोक्षमार्गकी दोक्षामें तीन वर्णों को स्थान दे देना उन्हींके वचनोंके अनुसार श्रागमबाह्य कार्य ठहरता है। पण्डितप्रवर आशाधरजीकी भी लगभग यही स्थिति है / वे मद्यादिविरतिका उपदेश करते समय यह तो कहते हैं कि यह जिनाज्ञा है ऐसा श्रद्धान करके इसे स्वीकार करना चाहिए, कुलधर्मरूपसे नहीं / परन्तु तीन वर्णके मनुष्य दीक्षाके योग्य हैं और उन्हींका उपनयन संस्कार होता है इत्यादि बातोका विधान करते समय उन्होंने यह विचार नहीं किया कि श्रावकाचारमें जिनाशाके बिना हम इन बातोंका उल्लेख कैसे करते हैं ? तीन वर्णके मनुष्य दीक्षाके योग्य हैं और उन्हींका उपनयन संस्कार होता है यह जिनाज्ञा तो नहीं है, भरत चक्रवर्तीकी आज्ञा है। और जिनाज्ञा तथा भरत चक्रवर्तीकी अाज्ञामें बड़ा अन्तर है। जिनाज्ञा तो यह है कि पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए सब मनुष्य आठ वर्षके बाद दीक्षाके योग्य हैं / इस विषय पर विशेष प्रकाश हम पहले डाल ही आये हैं, इसलिए यहाँ पर और अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं है / स्पष्ट है कि जैनधर्मके अनुसार किसी भी.वर्णका मनुष्य, फिर चाहे वह अस्पृश्य शूद्र ही क्यों न हो, श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षाका अधिकारी है और उसके अनुसार वह आवश्यक घटकर्मोंका पालन कर सकता है / उसकी इस नैसर्गिक योग्यता पर प्रतिबन्ध लगानेका अधिकार किसीको नहीं है। यहाँ इतना अवश्य ही ध्यान में रखना चाहिए कि मुनिगण इन सामायिक आदि आवश्यक षटकर्मोंका पालन महाव्रत धर्मको ध्यानमें रखकर करते हैं और * श्रावक अणुव्रतोंको ध्यानमें रखकर करते हैं। मुनियों और श्रावकोंकी प्रतिक्रमण विधि अलग-अलग होनेका भी यही कारण है।