________________ 236 वर्ण, जाति और धर्म विधान किया है। उनमें प्रथम बात यह कही है कि स्त्री मुनिलिङ्गको स्वीकार कर मुक्ति की पात्र नहीं हो सकती। दूसरी बात यह कही गई है कि कोई मनुष्य वस्त्रका त्याग किये बिना मुनिधर्मको नहीं प्राप्त कर सकता तथा तीसरी बात यह कही गई है कि इस भरत क्षेत्रमें दुःषमाकालके प्रभाववश साधुके धर्मध्यान होता है, शुक्लध्यान नहीं हो सकता। इन तीन नियमोंको छोड़कर वहाँ यह नहीं कहा गया है कि अमुक वर्णका मनुष्य हो गृहस्थदीक्षा और मुनिदीक्षाका अधिकारी है। इस कारण भी मात्र त्रिवर्णका मनुष्य उपासकदीदा और मुनिदीक्षाका अधिकारी है यह सिद्धान्त मान्य नहीं किया जा सकता। , 6. स्वयं प्राचार्य जिनसेन उपनयन आदि क्रियाकाण्डके उपदेशको भगवान् सर्वज्ञको वाणी न बतला कर राज्यादि वैभवसम्पन्न भरत महाराज का उपदेश कहते हैं, इसलिए भी एकमात्र तीन वर्णका मनुष्य उपासकदीक्षा ओर मुनिदीक्षाका अधिकारी है इस वचनको मोक्षमार्गमें स्वीकार नहीं किया जा सकता। . ये कुछ तथ्य हैं जो महापुराण और उसके अनुवर्ती साहित्यके उक्त कथनको आगम बाह्य ठहरानेके लिए पर्याप्त हैं। स्पष्ट है कि जैनधर्ममें मोक्षमार्गको दृष्टिसे शूद्रोंका वही स्थान है जो अन्य वर्णवालोंका माना जाता है। साधारणतः शूद्रोंमें पिण्डशुद्धि नहीं होती, वे मद्य मांस आदिका सेवन करते हैं और सेवा आदि नोचकर्म करते हैं, इसलिए उन्हें उपनयन संस्कारपूर्वक दीक्षाके अयोग्य घोषित किया गया है। किन्तु तात्त्विकदृष्टि से विचार करनेपर इन हेतुत्रोंमें कोई सार प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एक तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंमें भी ये दोष देखे जाते हैं। दूसरे जो सिंह, कच्छ और मच्छ श्रादि तिर्यञ्च जीवनभर हिंसा कर्मसे अपनी आजीविका करते हैं और जिनमें स्त्री-पुरुषका कोई विवेक नहीं हैं वे भी जब आगमविधिके अनुसार सम्यग्दर्शन और विरताविरतरूप धर्मको धारण करनेके