________________ जिनमन्दिर प्रवेश मीमांसा 260 इस प्रकार शास्त्रीय प्रमाणोंके प्रकाशमें विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि शूद्रोंको श्री जिनमन्दिर में जाने और पूजन-पाठ करनेका कहीं कोई निषेध नहीं है। महापुराणमें इज्या आदि षट्कर्म करनेका अधिकार जो तीन वर्णके मनुष्योंको दिया गया है उसका रूप सामाजिक है धार्मिक नहीं और उद्देश व अभिप्रायकी दृष्टि से सामाजिक विधिविधान तथा धार्मिक विधिविधानमें बड़ा अन्तर है, क्योंकि क्रिया एक प्रकारकी होनेपर भी दोनोंका फल अलग-अलग है। ऐसी अवस्थामें प्राचार्य जिनसेन द्वारा महापुराणमें कौलिक दृष्टिसे किये गये सामाजिक विधिविधानको आत्मशुद्धिमें सहायक मानना तत्त्वका अपलाप करना है। यद्यपि इस दृष्टि से भगवद्भक्ति करते समय भी पूजक यह भावना करता हुआ देखा जाता है कि मेरे दुःखोंका क्षय हो, कर्मोका क्षय हो, समाधिमरण हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो और मैं उत्तम गति जो मोक्ष उसे प्राप्त करूँ। जलादि द्रव्यसे अर्चा करते समय वह यह भी कहता है कि जन्म, जरा और मृत्युका नाश करनेके लिए मैं जलको अर्पण करता हूँ आदि / किन्तु ऐसी भावना व्यक्त करने मात्रसे वह क्रिया मोक्षमार्गका अङ्ग नहीं बन सकती, क्योंकि जो मनुष्य उक्त विधिसे पूजा कर रहा है उसकी आध्यात्मिक भूमिका क्या है, प्रकृतमें यह बात मुख्यरूपसे विचारणीय हो जाती है। ___ यदि भगवद्भक्ति करनेवाला कोई व्यक्ति इस अभिप्रायके साथ जिनेन्द्रदेवकी उपासना करता है कि 'यह मेरा कौलिक धर्म है, मेरे पूर्वज इस. धर्मका आचरण करते आये हैं, इसलिए मुझे भी इसका अनुसरण करना चाहिए। मेरा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुलमें जन्म हुआ है, अतः मैं ही इस धर्मको पूर्णरूपसे पालन करनेका अधिकारी हूँ। जो शूद्र हैं वे इस धर्मका उस रूपसे पालन नहीं कर सकते, क्योंकि वे नीच हैं। -यह मन्दिर भी मैंने या भेरे पूर्वजोंने बनवाया है, इसलिए मैं इसमें मेरे . समान आजीविका करनेवाले तीन वर्णके मनुष्योंको ही प्रवेश करने दूंगा,