________________ 136 कुलमीमांसा जा सकता है। फिर भी पिछले प्रकरणमें हमारा लक्ष्य मुख्यतया जैन परम्परामें प्रचलित गोत्रके आधारसे व्याख्यान करने तक सीमित रहा है, इसलिए वहाँ पर कुल या वंशका विस्तारके साथ विचार नहीं किया जा सका है। किन्तु नौंवी शताब्दिके बाद उत्तरकालीन जैन साहित्यमें ब्राह्मण श्रादि वर्गों के समान इनका भरपूर उपयोग हुआ है, इसलिए यहाँ पर इनका साङ्गोपाङ्ग विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। कुल और वंश शब्दका अर्थ- यह तो स्पष्ट है कि प्राचीन जैन आगम साहित्यमें कुल और वंश ये शब्द नहीं आये हैं; क्योंकि आगममें जिस प्रकार गोत्रको जीवकी पर्याय मान कर स्वीकार किया है उस प्रकार कुल या वंशको जीवकी पर्यायरूपसे स्वीकार नहीं किया गया है। जैन परम्पराके गोत्र और वैदिक परम्पराके गोत्रमें जो अन्तर है वही अन्तर जैन परम्परामें गोत्रसे कुल या वंशमें लक्षित होता है / परम संग्रहनयका विषय महासत्ता मानी गई है। परन्तु स्वरूपास्तित्वको छोड़कर जिस प्रकार उसकी पृथक् सत्ता नहीं पाई जाती है उसी प्रकार लोकमें कुल या वंशकी कल्पना की अवश्य गई है परन्तु जीवकी गोत्रपर्यायको छोड़कर उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें यदि कहा जाय तो यह कहना उपयुक्त होगा कि वैदिक परम्परामें जिस अर्थमें गोत्र शब्द आता है, जैन पुराण साहित्यमें, कुल या वंश शब्द मुख्यतया उसी अर्थमें आये हैं / यद्यपि पौराणिक साहित्यमें कहीं-कहीं इन शब्दोंके स्थानमें गोत्र शब्दका व्यवहार हुआ है। परन्तु इतने मात्रसे कर्मसाहित्य और जीवसाहित्यमें आया हुआ गोत्र शब्द तथा चरणानुयोगमें और प्रथमानुयोगमें आया हुआ कुल या वंश शब्द एकार्थक नहीं हो जाते। कुल शब्दका दूसरा अर्थ. इस प्रकार साधारणतः जैन साहित्यमें कुल शब्द किस अर्थमें आया है इसका विचार किया / आगे उसके दूसरे अर्थ पर प्रकाश डालते हैं