________________ वर्णमीमांसा 175 हुए. कर्मसे वर्णव्यवस्थाका समर्थन किया। उसमें षट्कर्मव्यवस्था और तीन वर्ण कबसे लोकमें प्रसिद्ध हुए तथा इनकी परिपाटी किसने चलाई यह कुछ भी नहीं बतलाया गया है। इसी प्रकार यशस्तिलकचम्पूमें यह स्पष्ट कहा गया है कि वर्णाश्रमधर्म आगमसम्मत नहीं है। वेद और मनुस्मृति आदिके आधारसे यह लोकमें प्रसिद्ध हुआ है। जो कुछ भी हो, यह स्पष्ट है कि कमसे-कम स्वामी समन्तभद्र के कालसे जैन परम्परामें यही मत अधिक प्रसिद्ध है कि षटकर्मव्यवस्थाके आदि स्रष्टा भगवान् ऋषभदेव ही हैं / तथा पुराणकालमें वे तीन वर्षों के स्रष्टा भी मान लिए गये / सोमदेवसूरि और चार वर्ण .. यह तो सुविदित है कि सोमदेवसूरि अपने कालके बड़े भारी लोकनीतिके जानकार विद्वान् हो गये हैं / यशस्तिलकचम्पू जैसे महाकाव्य और नीतिवाक्यामृत जैसे राजनीतिगर्भित शास्त्रका प्रणयन कर उन्होंने साहित्यिक जगत्में अमर कीर्ति उपार्जित की है। इस द्वारा उन्होंने संसारको यह स्पष्टरूपसे दिखला दिया है कि स्वाध्याय और ध्यानमें रत जैन साधु भी लोकनीतिके अधिवक्ता हो सकते हैं। क्या राजनीति और क्या समाजतन्त्र इनमेंसे जिस विषयको उन्होंने स्पर्श किया है उसे स्वच्छ दर्पणमें प्रतिविम्बित होनेवाले. पदार्थों के समान खोलकर रख दिया है यह उनकी प्रतिभाकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके साहित्यका आलोढन करनेसे उनमें जो गुण दृष्टिगोचर होते हैं उनमें निर्भयनामक गुण सबसे प्रधान है। जिस तत्त्वका उन्होंने विवेचन किया है उसपर वे निर्भयताकी छाप बराबर छोड़ते गये हैं / लौकिकधर्मका जैनीकरण करते हुए भी व्यामोहवश उसे वे जैन आगमसम्मत मानने के लिए कमी भी तैयार नहीं हुए। उन्होंने यह उपदेश अवश्य दिया है कि जैनोंके लिए सब लौकिकविधि प्रमाण है और इस लौकिकविधिके भीतर वे जातिवादके उन सब तत्त्वोंको प्रश्रय देनेमें पीछे नहीं रहे हैं जो ब्राह्मण धर्मकी देन है। पर उन्होंने यह उपदेश यह कहकर