________________ 228 वर्ण, जाति और धर्म समान धवला टीकामें भी मात्र इतना ही स्वीकार किया गया है कि जो कर्मभूमिज है, गर्भज है, पर्याप्त है और आठ वर्षका है वह सम्यक्त्वपूर्वक संयमासंयम और संयमको धारण करनेका अधिकारी है। प्राचार्य जिनसेनके महापुराणको छोड़कर उत्तरकालमें लिखे गये गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड और लब्धिसार-क्षपणसारमें भी इसी तथ्यको स्वीकार किया गया है। इसलिए इनके कर्ताके सामने मनुप्योंके आर्य और म्लेच्छ ऐसे भेद उपस्थित होनेपर उन्हें कहना पड़ा है कि दोनों ही संयमासंयम और संयमधर्मके अधिकारी हैं। इतना ही नहीं कषायप्राभूत की टीका करते समय इसी तथ्यको स्वयं प्राचार्य जिनसेनको भी स्वीकार करना पड़ा है / वे करते क्या / उनके सामने इसके सिवा अन्य कोई गति ही नहीं थी। प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि न्याय ग्रन्थोंका भी यही अभिप्राय है। यह उत्तरकालीन प्रमुख साहित्यका सामान्यावलोकन है जो प्रत्येक विचारकके मनपर एकमात्र यही छाप अंकित करता है कि कहाँ जैनधर्म और कहाँ वर्णाश्रमधर्म / यह कहना तो आसान है कि पापको मार भगायो और पापीको अपनायो। पर क्या ब्राह्मणधर्मके अनुसार इन दोनों भेद करना सम्भव है। यदि इन दोनोंके भेदको समझना है तो हमें जैनधर्मके श्रान्तरिक रहस्यको समझना होगा। तभी जैनधर्मकी चरितार्थता हमारे ध्यानमें पा सकेगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम शूद्रको पापी और ब्राह्मणको पवित्रात्मा मानते हैं। जातिवादके आधारपर कल्पित की गई * ये ब्राह्मण श्रादि संज्ञाएँ मनुष्यों में भेद डालकर अात्मतोषका कारण भले ही बन जाँय पर धर्ममें इनका आश्रय करनेवाला व्यक्ति चिर मिथ्यात्वी बना रहेगा इसमें रञ्चमात्र भी सन्देह नहीं है। एक जैन कविने इन जातियोंकी निःसारता बतलाते हुए क्या कहा है यह उन्हीके शब्दोंमें पढ़िए न विप्राविप्रयोरस्ति सर्वथा शुद्धशीलता। कालेनादिना गोत्रे स्खलनं क्व न जायते // संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया। . . विद्यन्ते तात्विका यस्यां स जातिमहती मता॥ ..