________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 231 उत्पन्न कर दो है जो ब्राह्मणोंको इष्ट थी। जैनेन्द्र व्याकरणके जिस सूत्रका निर्देश हम पहले कर आये हैं उसीसे बल पाकर आचार्य जिनसेनने यह कार्य किया है या उनके कालमें निर्माण हुई परिस्थितिसे विवश होकर उन्हें यह कार्य करना पड़ा है यह तो हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते / परन्तु हम निश्चय पूर्वक इतना अवश्य कह सकते हैं कि उनके इस कार्यसे आगमिक परम्पराकी अत्यधिक हानि हुई है / महापुराणके बादका अधिकतर साहित्य इसका साक्षी है / वर्णव्यवस्थाका सम्बन्ध समाजसे है, धर्मसे नहीं, इसलिए उसे छोड़कर ही मोक्षमार्गका निरूपण होना चाहिए इसे लोग एक प्रकारसे भूलसे गए। श्राचार्य जिनसेनके बाद सर्व प्रथम उत्तरपुराणके कर्ता गुणभद्र आये तो उन्हें मोक्षमार्गमें तीन वर्ण दिखलाई दिये। एक ओर वे जाति व्यवस्थाको तीव्र शब्दोंमें निन्दा भी करते हैं और दूसरी और वे यह कहने से भी नहीं चूकते कि जिनमें शुक्लध्यानके कारण जाति नामकर्म और गोत्रकर्म हैं वे तीन वर्ण हैं। प्रवचनसारके टीकाकार जयसेनको तो कोई बात ही नहीं है। उन्हें तीन बर्ण दीक्षाके योग्य हैं इस आशयकी एक गाथा मिल गई। समझा यही आगमप्रमाण है, उद्धृत कर दी। सोमदेव सूरि और पण्डित प्रवर आशाधर जी का भी यही हाल है / सोमदेव सूरि सामने होते तो पूछते कि महाराज ! आप यह बात श्रुति और स्मृतिविहित लौकिकधर्मकी कह रहे हो या आगमविहित पारलौकिक धर्मकी, क्योंकि इन्होंने गृहस्थ के लिए दो प्रकारके धर्मका उपदेश दिया है-एक लौकिक धर्मका और दूसरा पारलौकिक धर्म का। यह प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने यह कहनेका साहस किया है कि लौकिक धर्ममें वेद और मनुस्मृति प्रमाण हैं। फिर भी वे एक साँसमें यह भी कह जाते हैं कि इसे प्रमाण माननेमें न तो सम्यक्त्वकी हानि होती है और न व्रतों .दूषण लगता है / पहले हम एक प्रकरणमें इस. स्पष्टोक्तिके कारण इनकी प्रशंसा भी कर आये हैं। पण्डित प्रवर आशाधर जी कुल और जाति