________________ वर्णमीमांसा 183 खण्डन किया है। वे कहते हैं कि 'वेदमन्त्र और अग्निसे संस्कारित होकर शरीरमें कोई अतिशय उत्पन्न हो जाता है यह बात हमारे ज्ञानके बाहर है / मनुष्य, हाथी, गधा, गाय और घोड़ा इसप्रकारका जातिभेद तो है, पर मनुष्योंमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस प्रकारका जातिभेद नहीं है, क्यों कि तथाकथित दूसरी जातिके मनुष्य द्वारा दूसरी जातिकी स्त्रीमें गर्भ धारण करना और उससे सन्तानकी उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है / पशुओंमें प्रयत्न करने पर भी एक जातिका पशु दूसरी जातिकी स्त्रीके साथ संयोग कर सन्तान उत्पन्न नहीं करता / किन्तु सब मनुष्योंकी स्थिति इससे भिन्न है, इसलिए जन्मसे वर्ण न मान कर कर्मके आधारसे वर्ण मानना ही उचित है / ' यह उनके कथनका सार है / इतना कहने के बाद उन्होंने चार वर्ण लोकमें क्यों प्रसिद्ध हुए इसके कारणका निर्देश करते हुए वैश्यवर्ण और शूद्रवर्णके विषयमें कहा है कि 'जिन्होंने लोकमें शिल्पकर्ममें प्रवेश किया उनकी भगवान् ऋषभदेवने वैश्य संज्ञा रखी और जो श्रुत अर्थात् सदागमसे भाग खड़े हुए उन्हें उन्होंने शूद्र शब्द द्वारा सम्बोधित किया / ' दूसरे स्थान पर उन्होंने यह भी कहा है कि 'जो क्षत्रिय और वैश्यवर्णके कमों को सुनकर लजित हुए और नीचकर्म करने लगे वे शद्र कहे गये / प्रेष्य आदि उनके अनेक भेद हैं।' इसके बाद हरिवंशपुराणका स्थान है / इसमें शूद्रवर्णके कर्मका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जो लोकमें शिल्यादि कर्म करने लगे वे शूद्र कहलाये / ' हरिवंशपुराणके अनुसार भगवान् ऋषभदेवने तीन वों की उत्पत्ति की ऐसा बोध नहीं होता,क्यों कि उसमें भगवान् ऋषभदेवने छह कर्मों का उपदेश दिया यह कहनेके बाद 'आपत्तिसे रक्षा करने के कारण क्षत्रिय हो गये, वाणिज्यके योगसे वैश्य होगये और शिल्लादिके सम्बन्धसे शूद्र हो गये' इतना ही कहा है। - इसके बाद महापुराणका स्थान है। इसमें बतलाया है कि 'पादि ब्रह्मा ऋषभदेवने छह कर्मोंका उपदेश देनेके बाद तीन वर्णों को सृष्टि की।' शद्रवर्णका कर्म बतलाते हुए वहाँ कहा है कि 'जो क्षत्रिय और वैश्यवर्णकी