________________ 206 . वर्ण, जाति और धर्म समय भरत महाराज सम्यग्दृष्टि श्रावकोंको छाँट-छाँट कर अपने महलमें प्रवेश कराने में लगे हुए थे उस समय वे उनके मस्तक आदि अङ्ग-विशेषमें काकणी रत्नके द्वारा रत्नत्रयके प्रतीकरूप तीन लकीरें उकेरते जाते होंगे। हरिवंशपुराणमें इस सम्बन्धमें जो कुछ कहा गया है उसका यही भाव प्रतीत होता है। जिस प्रकार भारतीय नारियाँ अपने हाथ आदिमें गुदना गुदाती हैं। या कोई शिवभक्त अपने मस्तक पर त्रिपुंड्रका चिह्न अङ्कित करा लेते हैं, हरिवंशपुराणके आधारसे भरत महाराज द्वारा की गई यह : क्रिया लगभग इसी प्रकार की जान पड़ती है / यह उक्त दोनों पुराणोंके कथनका सार है। इससे हमें एक नया प्रकाश मिलता है जिस पर अभी तक. सम्भवतः बहुत ही कम विचारकोंका ध्यान गया है। इन उल्लेखोंके आधारसे हम यह मान सकते हैं कि भरत महाराजने ब्राह्मणवर्णकी स्थापना करते समय हार पहिनाने या तीन लकीरोंको उकीरने की जो भी क्रिया की होगी उसका महत्त्व तात्कालिक रहा होगा / मोक्षमार्गके अभिप्रायसे व्रतोंको स्वीकार करनेवाले गृहस्थको इसका किसी भी रूपमें अन्धानुकरण करनेकी आवश्यकता नहीं है / यज्ञोपवीत अपने में एक परिग्रह है / इसलिए व्रतोंके चिन्हरूपमें इसे धारण करनेका उपदेश त्रिकालमें नहीं दिया जा सकता। मालूम पड़ता है कि एकमात्र इसी अभिप्रायसे इन पुराणकारोंके मतानुसार भरत महाराजने व्रतोंके चिन्हरूपमें यज्ञोपवीतका विधान नहीं किया होगा। निष्कर्ष यज्ञोपवीतके विषयमें परस्पर विरोधी ये विचार हैं जो जैनपुराणों में उपलब्ध होते हैं / इससे ज्ञात होता है कि जैन-परम्परामें यह विधि कभी भी प्रचलित नहीं रही है। केवल लोकरूढ़ि देखकर इसका कथन भरत महाराजके सुखसे कराया गया है। यज्ञोपवीतको जैनधर्ममें स्वीकार नहीं करनेका यह एक काररण तो है ही। साथ ही और भी अनेक कारण हैं