________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 213 तीन वर्ण उत्तम हैं और शूद्रवर्ण निकृष्ट है यह किस आधारसे माना जाय / यदि यह कहा जाता है कि ऐसा जीव शूद्रवर्णमें ही उत्पन्न होगा तो शूद्रवर्णवाला मनुष्य संयमको धारणकर मोक्ष नहीं जा सकता इस मान्यताको स्थान कैसे दिया जा सकता है ? यह कहना कि ऐसा जीव पापबहुल और अशुभ लेश्यावाला होकर भी आगे संयमको धारणकर मोक्ष जानेवाला है, इसलिए वह तीन वर्णके मनुष्योंमें ही उत्पन्न होगा, कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इसका नियामक कोई अागम वचन नहीं उपलब्ध होता / दूसरे तीन वर्णके मनुष्य ही मोक्ष जाते हैं यह भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि जो म्लेच्छ वर्णव्यवस्थाको ही स्वीकार नहीं करते वे भी संयमको धारणकर मोक्षजाते हैं यह माना गया है / तथा जिस जातिमें लौकिक कुलशुद्धिका कोई नियम नहीं है उस जातिका मनुष्य मुनि रूपसे लोकमान्य होता हुआ वर्तमान कालमें भी देखा गया है। इसलिए स्पष्ट है कि आगम साहित्यमें संयमासंयम और संयमको धारण करनेके जो नियम बतलाये हैं वे अपनेमें परिपूर्ण हैं। उनमें न्यूनाधिकता करना चक्रवर्ती राजाकी बात तो छोड़िए, सकल संयमको धारण करनेवाले छद्मस्थ साधुके अधिकारके बाहरकी बात है / नियम तो केवली भगवान् भी नहीं बनाते / वे तो वस्तुमर्यादाको उद्घादनमात्र करते हैं / इसलिए उनके विषयमें भी यह कहना समीचीन होगा कि वे.भी उन नियमोंको न्यूनाधिक नहीं कर सकते, क्योंकि जो एक केवलीने देखा और कहा है वही अनन्त केवलियोंने देखा और कहा समझना चाहिए / सोमदेवसूरिके द्वारा आगमाश्रित जैनधर्मको अलौकिक धर्म कहनेका भी यही कारण है ? आचार्य कुन्दकुन्द और मूलाचार यह पागम साहित्यका अभिप्राय है। इसके उत्तरकालवी आचार्य * 'कुन्दकुन्दके साहित्य और मूलाचारका अभिप्राय भी इसी प्रकारका है। प्रवचनसारका चारित्र अधिकार, नियमसार और मूलाचार ये चरणानुयोगके