________________ जिनदीचाधिकार मीमांसा 211 लिए कल्पित होनेसे वह वस्तुभूत नहीं है, इसलिए उसके आधारसे वहाँ विचार होना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि चार वर्ण सम्बन्धी मान्यता ऐसी है जो कभी लोकमें प्रचलित रहती है और कभी नहीं भी रहती है / मनुष्यादिगतिसम्बन्धी जो आध्यात्मिक योग्यता है और योनि-मेहन आदि सम्बन्धी जो शारीरिक योग्यता है वह किसीके मिटाये नहीं मिट सकती। यदि कोई ऐसा आन्दोलन करे कि हमें मनुष्यों और तिर्यञ्चोंकी जातियोंको मिटा कर एक करना है या स्त्री-पुरुष भेद मिटा कर एक करना है तो ऐसा कर सकना आन्दोलन करनेवालोंके लिए सम्भव नहीं है। पर इसके स्थानमें कोई ऐसा आन्दोलन करे कि आगे चार वर्ण नहीं चलने देना है या चारके स्थानमें तीन, दो या एक वर्ण रखना है या मनुष्योंकी श्राजीविका आदि की व्यवस्था अन्य प्रकारसे करनी है तो आन्दोलन करनेवाले इस योजनामें सफल हो सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि मनुष्यादिगतिसम्बन्धी आध्यात्मिक योग्यता और योनि-मेहन आदि शारीरिक योग्यता के समान चार वर्णों की मान्यता वास्तविक नहीं है। इसलिए किस वर्णवाला मनुष्य कितने संयमको धारण कर सकता है इसका विचार आगम साहित्यमें न तो किया ही गया है और न किया ही जा सकता है। . इस विषयको थोड़ा इस दृष्टि से भी देखिए / षट्खण्डागम जीवस्थान चूलिकाअनुयोगद्वार में गत्यागतिका विचार करते हुए जिस प्रकार देवगतिसे आकर मनुष्यगतिमें उत्पन्न हुए जीवमें संयमासंयम और संयम आदिको धारण करनेकी पात्रताका निर्देश किया है उसी प्रकार नरकगतिसे आकर मनुष्यगतिमें उत्पन्न हुए जीवमें भी संयमासंयम और संयम आदिको धारण करनेकी पात्रताका भी निर्देश किया है / जिन्होंने आगमका अभ्यास किया है वे यह अच्छी तरहसे जानते हैं कि नरकमें अशुभ तीन लेश्याएँ और ऊपरके देवोंमें शुभ तीन लेश्याएं पाई जाती हैं। तथा नारकी जीव पापबहुल और कल्पवासी देव पुण्यबहुल होते हैं। एक यह भी नियम है कि नरकसे निकलकर मनुष्यगतिमें आनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक वही