________________ 186 . वर्ण, जाति और धर्म जिनसेनको छोड़कर पूर्वोक्त शेष सब प्राचार्य वर्ण व्यवस्थाको जन्मसे न मानकर कर्मसे ही मानते हैं। श्रावकधर्म और मुनिधर्मको दीक्षाके विषयमें भी यही हाल है। अर्थात् महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन एकमात्र यह मानते हैं कि शूद्र वर्णके मनुष्य श्रावकधर्म और मुनिधर्मकी दीक्षाके अयोग्य हैं। किन्तु पूर्ववर्ती और उत्तर कालव” शेष आचार्य ऐसा नहीं मानते / सोमदेवसूरि और पण्डित प्रवर आशाधरजीने यदि शूद्रोंको दीक्षाके अयोग्य कहा भी है तो वह केवल सामाजिक दृष्टि से ही मोक्षमार्गको दृष्टि से नहीं। उक्त समस्त कथनका निष्कर्ष यह है कि जैनधर्ममें वर्ण व्यवस्थाको रञ्चमात्र भी स्थान नहीं है। यदि जैनधर्मके अनुयायी लौकिक दृष्टिसे उसे स्वीकार भी करते हैं तो उसे कर्मके आधारसे ही स्वीकार * किया जा सकता है, जन्मसे नहीं। वर्ण और विवाह समाजमें विवाहका उतना ही महत्त्व है जितना अन्य कर्मोंका / जिस प्रकार आजीविकाकी समुचित व्यवस्था किये बिना समाजमें स्थिरता थाने में कठिनाई जाती है उसी प्रकार स्त्रियों और पुरुषोंके परस्पर सम्बन्धका समुचित विचार किये विना स्वस्थ और सदाचारी समाजका निर्माण होना असम्भव है। मोक्षमार्गमें जहाँ भी ब्रह्मचर्य अणुनतका उल्लेख आया है वहाँ पर केवल इतना ही कहा गया है कि व्रतो श्रावकको स्वस्त्रीसन्तोष या परस्त्रीत्यागका व्रत स्वीकार करना मोक्षमार्गकी सिद्धि में प्रयोजक है / किन्तु वहाँपर स्वस्त्री किसे माना जाय और परस्त्री किसे इसका कोई विवेक नहीं किया गया है। इतना अवश्य है कि इसी व्रतके अतीचार प्रकरणमें 'विवाह' और 'परिगृहीत' शब्द आते हैं। इसलिए इस आधार से यह माना जा सकता है कि विवाहिता या परिगृहीता स्त्री ही स्वस्त्री हो सकती है, अन्य स्त्री नहीं। तो भी ब्रह्मचर्य अणुव्रतमें परविवाहकरणकी परिगणना अतीचार रूपसे की जानेके कारण विदित होता है कि विवाह