________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा पुराणोंमें ब्राह्मणोंकी स्वतन्त्र श्राजीविकाका निर्देश नहीं करनेका यही कारण है / इतना अवश्य है कि भरत चक्रवर्तीके दृष्टान्त द्वारा प्राचार्य रविषेण और द्वितीय जिनसेन इतना अवश्य ही सूचित करते हैं कि व्रती श्रावकोंका अन्य गृहस्थोंको समय-समयपर दानादिके द्वारा उचित सम्मान अवश्य करते रहना चाहिए ताकि वे निराकुलतापूर्वक अपनी आजीविका करते हुए मोक्षमार्गमें लगे रहें। किन्तु महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन इस मतसे सहमत नहीं जान पड़ते / इस मामलेमें वे मनुस्मृतिका अनुसरण करते हुए उनकी आजीविकाके साधनरूपसे याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह इन तीन कर्मोंका अलगसे उल्लेख करते हैं। यहाँपर यह बात अवश्य ही ध्यानमें रखनी चाहिए कि यद्यपि ब्राह्मणवर्णकी उत्पत्तिके समय तो महापुराणके कर्ता श्राचार्य जिनसेन मात्र व्रती श्रावकोंको ब्राह्मणरूपसे स्वीकार करते हैं, किन्तु बादमें वे इसे भी एक स्वतन्त्र जाति मान लेते हैं। इसलिए उनके सामने अन्य जातियोंके समान इस जातिके स्वतन्त्र कर्मका प्रश्न खड़ा होना स्वाभाविक है और इसीलिए उन्होंने मनुस्मृतिके अनुसार ब्राह्मण जातिके याजन आदि कर्म बतलाये हैं। परन्तु इनके पूर्ववर्ती अन्य पुराणकारों के सामने इस प्रकारको विकट समस्या उपस्थित ही नहीं थी, क्योंकि उनके मतानुसार यदि कोई व्रतोंको स्वीकारकर ब्राह्मण कहलाने लगता है तो इतनेमात्रसे उसे अपनी पुरानी आजीविका छोड़नेका कोई कारण नहीं है। स्पष्ट है कि पद्मपुराण और हरिवंशपुराण के अनुसार ब्राह्मण यह संज्ञा लोकमें जन्म या कर्मके आधारसे प्रचलित न होकर व्रतोंके आधारसे प्रचलित हुई थी, अतः जैनमतानुसार ब्राह्मणवर्णका असि आदि छह कर्मोंके सिवा अन्य कोई स्वतन्त्र कर्म रहा है यह नहीं कहा जा सकता। तात्पर्य यह है कि यदि क्षत्रिय व्रतोंको स्वीकारकर ब्राह्मण बनता है तो वह असि कर्मसे अपनी आजीविका करता रहता है, यदि वैश्य * व्रतोंको स्वीकारकर ब्राह्मण बनता है तो वह कृषि और वाणिज्य कर्मसे अपनी आजीविका करता रहता है और यदि शूद्र व्रतोंको स्वीकारकर ब्राह्मण