________________ 181 वर्णमीमांसा बड़ा हंगामा उठ खड़ा हुआ / स्वयंवर मण्डपमें उपस्थित हुए राजाओंमें तरह तरहकी बातें होने लगीं। कोई इसका समर्थन करने लगे और कोई इसे अपना पराभव मानने लगे / अन्तमें सबको क्षुभित देखकर वसुदेवने कहा कि 'स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या योग्य वरका वरण करती है। वहाँ कुलीनता और अकुलीनताका सवाल ही खड़ा नहीं होता। ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो लोकमें कुलीन माना जाता है वह सुभग ही होता है और जो अकुलीन माना जाता है वह दुर्भग ही होता है / कुलीनता और अकुलीनताके साथ सौभाग्य और दुर्भाग्यका अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है / अतएव लोग शान्त हों / ' हरिवंशपुराणके इस कथनसे विदित होता है कि प्राचीन कालसे ही विवाहमें योग्य सम्बन्धका विचार होता आया है, कुलीनताका नहीं। यद्यपि पुराण साहित्यमें कुछ अपवादोंको छोड़ कर अधिकतर उदाहरण सवर्ण विवाहके ही मिलते हैं, और एक दृष्टिसे ऐसा होना उचित भी है। किन्तु इसका यदि कोई यह अर्थ लगावे कि समाजमें असवर्ण विवाह कभी मान्य ही नहीं रहे हैं. तो उसका ऐसा विचार करना ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें सवर्ण विवाहके साथ असवर्ण विवाहके उदाहरण तो पाये ही जाते हैं। साथ ही ऐसे भी उदाहरण पाये जाते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि व्यभि. चारजात कन्या के साथ विवाह होने पर भी न तो समाजमें कोई रुकावट डाली जाती थी और न उन दोनों के धार्मिक अधिकार छिननेका ही प्रश्न खड़ा होता था। - हरिवंशपुराणमें चारुदत्त और वसन्तसेनाकी कथा आई है। वसन्तसेना वेश्या पुत्री होते हुए भी उसके साथ चारुदत्तने विवाह किया था। वहाँ वसन्तसेनाके द्वारा अणुव्रतधर्म स्वीकार करनेका भी उल्लेख है। इससे थोड़ी भिन्न एक दूसरी कथा उसी पुराणमें आई है / उसमें बतलाया है कि वीरक श्रेष्ठीकी स्त्री वनमालाको राजा सुमुखने बलात् अपने घरमें रख लिया और उसे पटरानी पद पर प्रतिष्ठित किया / कालान्तरमें उन दोनोंने